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अपवाद, वर्षाऋतु की कालमर्यादा, वर्षावास के क्षेत्र से निकले हुए श्रमण-श्रमणियों के लिए वस्त्रादि ग्रहण करने की विधि, अपवाद आदि। यथारत्नाधिकवस्त्रपरिभाजनप्रकृतसूत्रः
प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में वस्त्रविभाजन की विधि की ओर निर्देश किया गया है। इसमें बताया गया है कि यथारत्नाधिक परिभाजन का क्या अर्थ है, क्रमभंग में क्या दोष हैं, गुरुओं के योग्य वस्त्र कौन-से हैं, रत्नाधिक कौन हैं, उनका क्या क्रम है, संमिलित रूप से लाए गए वस्त्रों के परिभाजनविभाजन का क्या क्रम है, लोभी साधु के साथ वस्त्रविभाजन के समय कैसा व्यवहार करना चाहिए आदि।
सचित्त, अचित्त और मिश्रग्रहण का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने बताया है कि जल, अग्नि, चौर, दुर्भिक्ष, महारण्य, ग्लान, श्वापद आदि भयप्रद प्रसंगों की उपस्थिति में आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर—इन पाँच निर्ग्रथों तथा प्रवर्तिनी, उपाध्याया, स्थविरा, भिक्षुणी और क्षुल्लिका—इन पाँच निग्रंथियों में से किसकी किस क्रम से रक्षा करनी चाहिए। इसी प्रकार यथारत्नाधिक-शय्यासंस्तारक-परिभाजनप्रकृतसूत्र की भी व्याख्या की गई है। कृतिकर्मप्रकृतसूत्रः
कृतिकर्म दो प्रकार का है—अभ्युत्थान और वंदनक। निग्रंथ-निग्रंथियों को पार्श्वस्थ आदि अन्यतीर्थिक, गृहस्थ, यथाच्छंद आदि को देखकर अभ्युत्थान नहीं करना चाहिए अर्थात् खडे नहीं होना चाहिए। आचार्यादि को आते देख कर अभ्युत्थान न करनेवाले को दोष लगता है। वंदनक कृतिकर्म का स्वरूप बताते हुए निम्नोक्त बातों की चर्चा की गई है—दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि प्रतिक्रम में आचार्य, उपाध्याय आदि को वंदना न करने, वंदना के पदों को न पालने तथा हीनाधिक वंदनक करने से लगनेवाले दोषों का प्रायश्चित्त; वंदनक-विषयक पच्चीस आवश्यक क्रियाएँ; अनादृत, स्तब्ध प्रवृद्ध, परिपिंडित, टोलगति अंकुश आदि बत्तीस दोष और उनके लिए प्रायश्चित्त; आचार्यादि को वंदना करने की विधि; विधि का विपर्यास करनेवाले के लिए प्रायश्चित्त; आचार्य से पर्यायज्येष्ठ को आचार्य वंदन करे या नहीं इसका विधान; आचार्य के रत्नाधिकों का स्वरूप; वंदना किसे करनी चाहिए और किसे नहीं करनी चाहिए इसका निर्णय; श्रेणिस्थितों को वंदना करने की विधि; व्यवहार और निश्चयनय से श्रेणिस्थितों की प्रामाणिकता की स्थापना; संयमश्रेणि का स्वरूप; अपवादरूप से पार्श्वस्थादि के साथ किन स्थानों में किस प्रकार के अभ्युत्थान और वंदनक का व्यवहार रखना चाहिए इत्यादि।
१. गा.४२३५-४३०७/ २. गा.४३०८-४३२९
३. गा.४३३३-४३५२। ४. गा.४३६७-४४१३। ५. गा.४४१४-४५५३।
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