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________________ अवग्रहानंतक-अवग्रहपट्टकप्रकृतसूत्रः निग्रंथियों को अवग्रहानंतक और अवग्रहपट्टक नहीं रखने से अनेक दोष लगते है। इसके विषय में कुछ अपवाद भी हैं। निग्रंथियों को हमेशा पूरे वस्त्रों सहित विधिपूर्वक बाहर निकलना चाहिए। अविधिपूर्वक बाहर निकलने से लगने वाले दोषों का निरूपण करते हुए भाष्यकार ने नर्तकी आदि के उदाहरण दिए है। घर्षित—अपहृत निग्रंथी के परिपालन की विधि का निर्देश करते हुए उसका अवर्णवाद-अवहेलना आदि करने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया है। इसी प्रसंग पर आचार्य ने यह भी बताया है कि पुरुषसंसर्ग के अभाव में भी पाँच कारणों से गर्भाधान हो सकता है। वे पाँच कारण ये हैं—१. दुर्विवृत एवं दुर्निषण्ण स्त्री की योनि में पुरुषनिसृष्ट शुक्रपुद्गल किसी प्रकार प्रविष्ट हो जाएँ, २. स्त्री स्वयं एवं पुत्रकामना से उन्हें अपनी योनि मे प्रवेश कराए, ३. अन्य कोई उन्हें उसकी योनि में रख दे, ४. वस्त्र के संसर्ग से शुक्रपुद्गल स्त्री-योनि में प्रविष्ट हो जाएँ, ५.उदकाचमन से स्त्री के भीतर शुक्रपुद्गल प्रविष्ट हो जाएँ।' निश्राप्रकृत एवं त्रिकृत्स्नप्रकृतसूत्रः जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भिक्षा के लिए गई हुई निग्रंथी को वस्त्र आदि का ग्रहण करना हो तो प्रवर्तिनी की निश्रा में करना चाहिए। यदि प्रवर्तिनी साथ में न हो तो उस क्षेत्र में जो आचार्य आदि हो उनकी निश्रा में करना चाहिए। त्रिकृत्स्नप्रकृतसूत्र की व्याख्या में इस विधान का प्रतिपादन किया गया है कि प्रथम दीक्षा ग्रहण करने वाले श्रमण के लिए रजोहरण, गोच्छक और प्रतिग्रहरूप तीन प्रकार की उपधि का ग्रहण विहित है। यदि दीक्षा लेने वाले ने पहले भी दीक्षा ली हो तो वह नई उपधि लेकर प्रव्रजित नहीं हो सकता। इस प्रसंग पर आचार्य ने निम्न विषयों का विवेचन किया है— प्रथम दीक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य के लिए चैत्य, आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु आदि की पूजा-सत्कार की विधि; तद्विषयक विशोधिकोटि-अविशोधिकोटि का स्वरूप; रजोहरण, गोच्छक और प्रतिग्रहरूप त्रिकृत्स्न के क्रय के योग्य कुत्रिकापण; कुत्रिकापण वाले नगर; निपॅथी के लिए चतुःकृत्स्न उपधि इत्यादि। समवसरणप्रकृतसूत्रः श्रमण-श्रमणियों को प्रथम समवसरण अर्थात् वर्षाकाल से संबंधित क्षेत्रकाल में प्राप्त वस्त्रों का ग्रहण नहीं करना चाहिए। इस नियम की परिपुष्टि के लिए निम्न बातों का व्याख्यान किया गया है—वर्षाऋतु में अधिक उपधि लेने की आज्ञा, उसके कारण, तत्संबंधी कुटुंबी का दृष्टांत, वर्षाऋतुयोग्य अधिक उपकरण नहीं रखने से संभावित दोष, वर्षाऋतु के योग्य उपकरण, तत्संबंधी १. गा.४१००-४१४७। २. गा.४१४८-४१८८। ३. गा.४१८९-४२३४। (६१)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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