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दुग्ध, दधि, नवनीत, आगमन, विकट, वंशी, वृक्ष, अभ्रावकाश आदि पदार्थों से युक्त स्थानों मे रहना साधु-साध्वियों के लिए निषिद्ध है।'
सागारिकपारिहारिकप्रकृतसूत्रों का व्याख्यान करते हुए आचार्य ने वसति के एक अथवा अनेक सागारिकों के आहार आदि के त्याग की विधि बताई है। इसका नौ द्वारों से विचार किया गया है—१. सागारिकद्वार, २. कः सागारिकद्वार, ३. कदा सागारिकद्वार, ४. कतिविधः सागारिकपिण्डद्वार, ५. अशय्यातरो वा कदाद्वार, ६. शय्यातरः कस्य परिहर्तव्यद्वार, ७. दोषद्वार, ८. कल्पनीयकारणद्वार, ९. यतनाद्वार, पिता-पुत्रद्वार, सपत्नीद्वार, वणिग्द्वार, घटाद्वार और व्रजद्वार।'
आहृतिका-निहतिकाप्रकृतसूत्रों की व्याख्या में दूसरों के यहां से आने वाली भोजन-सामग्री का दान करने वाले सागारिक और ग्रहण करने वाले श्रमण के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।'
अंशिकाप्रकृतसूत्र की व्याख्या में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि जब तक सागारिक की अंशिका (भाग) अलग न कर दी गई हो तब तक दूसरे का अंशिकापिण्ड श्रमण के लिए अग्रहणीय है। सागारिक की अंशिका का पांच प्रकार के द्वारों से वर्णन किया गया है—१. क्षेत्रद्वार, २. यन्त्रद्वार, ३. भोज्यद्वार, ४. क्षीरद्वार और ५. मालाकारद्वार।
पूज्यभक्तोपकरणप्रकृतसूत्रों का विवेचन करते हुए कहा गया कि विशिष्ट व्यक्तियों के लिए निर्मित भक्त अथवा उपकरण सागारिक स्वयं अथवा उसके परिवार का कोई सदस्य श्रमण को दे तो उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए।
उपधिप्रकृतसूत्र की व्याख्या में जाङ्गिक, भाङ्गिक, सानक, पोतक और तिरीपट्टक— इन पांच प्रकार के वस्त्रों का स्वरूप, उपधि के परिभोग की विधि, उसकी संख्या, अपवाद आदि पर प्रकाश डाला गया है।
रजोहरणप्रकृतसूत्र की व्याख्या में और्णिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुंजचिप्पक— इन पांच प्रकार के रजोहरणों के स्वरूप, उनके ग्रहण की विधि, क्रम और कारणों का विचार किया गया है। तृतीय उद्देश : उपाश्रयप्रवेशप्रकृतसूत्रः
प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है कि निग्रंथों को निग्रंथियों के और निग्रंथियों को निग्रंथों के उपाश्रय मे शयन, आहार, विहार, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि
१. गा.३२४०–३२८९। २. गा.३५१८-३६१५। ३. गा.३६१६-३६४२। ४. गा.३६४३–३६५२। ५. गा.३६५३-८। ६. गा.३६५९-३६७२। ७. गा.३६७३-८।
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