SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करना वर्जित है। इस प्रसंग पर स्थविरादि से पूछकर अथवा बिना पूछे निग्रंथियों के उपाश्रय में बिना कारण जाने से आचार्यादि को लगनेवाले दोषों और ओघ प्रायश्चित्तों का वर्णन किया गया है। किसी कारण से निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय मे प्रवेश करने का प्रसंग उपस्थित होने पर तद्विषयक आज्ञा, विधि और कारणों पर निम्नलिखित छ: द्वारों से प्रकाश डाला गया है—१. कारणद्वार, २. प्राघुर्णकद्वार, ३. गणधरद्वार, ४. महर्द्धिकद्वार, ५.प्रच्छादनाद्वार, ६.असहिष्णुद्वार।' चर्मप्रकृतसूत्रः ___ निर्ग्रन्थ-निग्रंथीविषयक चर्मोपयोग से संबंधित विषयों का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने निग्रंथियों को सलोम चर्म के उपभोग से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, तद्विषयक अपवाद, निग्रंथियों के लिए सलोम चर्म के निषेध के कारण, उत्सर्गरूप से निग्रंथों के लिए भी सलोम चर्म अकल्प्य, पुस्तकपंचक, तृणपंचक, दूष्यपंचकद्वय और चर्मपंचक का स्वरूप, तद्विषयक दोष, प्रायश्चित्त और यतनाएँ, निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए कृत्स्नचर्म अर्थात् वर्ण-प्रमाणादि से प्रतिपूर्ण चर्म के उपभोग अथवा संग्रह का निषेध, सकलकृत्स्न, प्रमाणकृत्स्न, वर्णकृत्स्न और बंधनकृत्स्न का स्वरूप, तत्संबंधी दोष और प्रायश्चित्त, कृत्स्नचर्म के उपभोगादि से लगने वाले दोषों का गर्व, निर्मार्दवता, निरपेक्ष, निर्दय, निरंतर और भूतोपघात द्वारों से निरूपण, तत्संबंधी अपवाद और यतनाएँ, वर्णप्रमाणादि से रहित चर्म के उपभोग और संग्रह का विधान, सकारण अकृत्स्न का उपभोग और निष्कारणक उपभोग से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, अकृत्स्नचर्म के अष्टादश खण्ड आदि विषयों का विवेचन किया है। कृत्स्नाकृत्स्नवस्त्रप्रकृतसूत्रः निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए कृत्स्नवस्त्र का संग्रह और उपभोग अकल्प्य है। उन्हें अकृत्स्नवस्त्र का संग्रह एवं उपयोग करना चाहिए। कृत्स्नवस्त्र का निक्षेप छः प्रकार का है—१. नामकृत्स्न, २. स्थापनाकृत्स्न, ३. द्रव्यकृत्स्न, ४. क्षेत्रकृत्स्न, ५. कालकृत्स्न और ६. भावकृत्स्न। द्रव्यकृत्स्न के दो भेद है सकलकृत्स्न और प्रमाणकृत्स्न। भावकृत्स्न दो प्रकार का है—वर्णयुत भावकृत्स्न और मूल्ययुत भावकृत्स्न। वर्णयुत भावकृत्स्न के पाँच भेद हैं—कृष्ण, नील, लोहित, पीत और शुक्ला मूल्ययुत भावकृत्स्न के तीन भेद है—जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। इनके लिए विविध दोष, प्रायश्चित्त और अपवाद है। १. गा.३६७९-३८०४। २. गा.३८०५-३८७८। ३. गा.३८७९-३९१७/ (५९)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy