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की यतनाओं के सेवन का विधान किया गया है। इसी प्रकार निग्रंथी के लिए भी रात्रि के समय अकेली विचारभूमि और विहारभूमि मे जाने का निषेध है।' आर्यक्षेत्रप्रकृतसूत्रः
इस सूत्र की व्याख्या में आचार्य ने श्रमण-श्रमणियों के विहारयोग्य क्षेत्र की मर्यादाओं का विवेचन किया है। साथ ही आर्यक्षेत्रविषयक प्रस्तुत सूत्र अथवा संपूर्ण कल्पाध्ययन का ज्ञान न रखनेवाले अथवा ज्ञान होते हुए भी उसका आचरण न करनेवाले आचार्य की अयोग्यता का दिग्दर्शन कराया है। इस प्रसंग पर साँप के सिर पूँछ का संवाद, खसद्रुमशृगाल का आख्यान, बंदर और चिडिया का संवाद, वैद्यपुत्र का कथानक आदि उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। 'आर्य' पद का १. नाम, २. स्थापना, ३. द्रव्य, ४. क्षेत्र, ५. जाति, ६. कुल, ७. कर्म, ८. भाषा, ९. शिल्प, १०. ज्ञान, ११. दर्शन और १२. चारित्ररूप बारह प्रकार के निक्षेपों से विचार किया है। आर्यजातियाँ छ: हैं—अंबष्ठ, कलिंद, वैदेह, विदक, हारित और तंतुण। आर्यकुल भी छः है— उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात-कौरव और इक्ष्वाकु। आर्यक्षेत्र के बाहर विचरने से लगनेवाले दोषों का निरूपण करते हुए स्कंदकाचार्य का दृष्टांत दिया गया है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की रक्षा और वृद्धि को दृष्टि में रखते हुए
आर्यक्षेत्र के बाहर विचरने के विधान की दृष्टि से संप्रतिराज का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। यहाँ तक प्रथम उद्देश का अधिकार है। द्वितीय उद्देशः
द्वितीय उद्देश की व्याख्या में निम्नलिखित सात प्रकार के सूत्रों का अधिकार है। १. उपाश्रयप्रकृत, २. सागरिकपारिहारिकप्रकृत, ३. आहृतिकानिहतिकाप्रकृत, ४. अंशिकाप्रकृत, ५. पूज्यभक्तोपरपणप्रकृत, ६. उपधिप्रकृत, ७. रजोहरणप्रकृत।'
उपाश्रयप्रकृतसूत्रों के विवेचन में उपाश्रय के व्याघातों का विस्तृत वर्णन है। जिसमें शालि, व्रीहि आदि सचेतन धान्यकण बिखरे हुए हों उस उपाश्रय में श्रमण-श्रमणियों के लिए थोडे से समय के लिए रहना भी वर्जित है। बीजाकीर्ण आदि उपाश्रयों में रहने से लगने वाले दोषों और प्रायश्चित्तों का निर्देश करते हुए भाष्यकार ने तद्विषयक अपवादों और यतनाओं की ओर भी संकेत किया है। प्रसंगवशात् उत्सर्गसूत्र, आपवादिकसूत्र, उत्सर्गापवादिकसूत्र, अपवादौत्सर्गिकसूत्र, उत्सर्गोत्सर्गिकसूत्र, अपवादापवादिकसूत्र, देशसूत्र, निरवशेषसूत्र, उत्क्रमसूत्र और क्रमसूत्र का स्वरूप बताया है। आगे यह भी बताया है कि सुराविकटकुंभ, शीतोदकविकटकुंभ, ज्योति, दीपक, पिंड,
१. गा.३२०७-३२३९। २. गा.३२४०–३२८९। ३. गा.३२९०-३५१७।
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