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________________ अध्वगमनप्रकृतसूत्रः श्रमण-श्रमणियों के लिए रात्रि में अथवा विकाल में अध्वगमन निषिद्ध है। अध्व पंथ और मार्ग भेद से दो प्रकार का है। जिसके बीच में ग्राम, नगर आदि कुछ भी न हों उसे पंथ कहते हैं। जो ग्रामानुग्राम की परंपरा से युक्त हो उसे मार्ग कहते हैं। रात्रि में मार्गरूप अध्वगमन करने से मिथ्यात्व, उड्डाह, संयमविराधना आदि अनेक दोष लगते हैं। पंथ दो प्रकार का होता है—छिन्नाध्वा और अछिन्नाध्वा। रात्रि के समय पंथगमन करने से भी अनेक दोष लगते हैं। अपवादरूप से रात्रिगमन की छूट है किंतु उसके लिए अध्वोपयोगी उपकरणों का संग्रह तथा योग्य सार्थ सहयोग आवश्यक है। सार्थ पाँच प्रकार के हैं— १. भंडी, २. बहिलक, ३. भारवह, ४. औदरिक और ५. कार्पटिक। इनमें से किस प्रकार के सार्थ के साथ श्रमण-श्रमणियों को जाना चाहिए, इसकी ओर निर्देश करते हुए आचार्य ने आठ प्रकार के सार्थवाहों और आठ प्रकार के आदियात्रिकों अर्थात् सार्थव्यवस्थापकों का उल्लेख किया है। इसके बाद सार्थ की अनुज्ञा लेने की विधि और भिक्षा, भक्तार्थना, वसति, स्थंडिल आदि से संबंध रखने वाली यतनाओं का वर्णन किया है। अध्वगमनोपयोगी अध्वकल्प का स्वरूप बताते हुए अध्वगमनसंबंधी अशिव, दुर्भिक्ष, राजद्विष्ट आदि व्याघातों और तत्संबंधी यतनाओं का विस्तृत विवेचन किया है। संखडिप्रकृतसूत्रः ‘संखडि' की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है—सम्-इति सामस्त्येन खण्ड्यन्ते त्रोट्यन्ते जीवानां वनस्पतिप्रभृतीनामायूंषि प्राचुर्येण यत्र प्रकरणविशेषे सा खलु संखडिरित्युच्यते अर्थात् जिस प्रसंग विशेष पर सामूहिक रूप से वनस्पति आदि का उपभोग किया जाता हो उसे संखडि कहते है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में यह बताया गया है कि निग्रंथ-निग्रंथियों को रात्रि के समय संखडि में अथवा संखडि को लक्ष्य में रख कर कहीं नहीं जाना चाहिए। माया, लोलुपता आदि कारणों से संखडि में जाने वाले को लगने वाले दोष, यावंतिका, प्रगणिता सक्षेत्रा, अक्षेत्रा, बाह्या, अकीर्णा आदि संखडि के विविध भेद और तत्संबंधी दोषों का प्रायश्चित्त, संखडि में जाने योग्य आपवादिक कारण और आवश्यक यतनाएँ आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है।' विचारभूमि-विहारभूमिप्रकृतसूत्रः निग्रंथों को रात्रि के समय विचारभूमि नीहारभूमि अथवा विहारभूमि-स्वाध्यायभूमि में अकेले नहीं जाना चाहिए। विचारभूमि दो प्रकार की है—कायिकीभूमि और उच्चारभूमि। इनमें रात्रि के समय अकेले जाने से अनेक दोष लगते हैं। अपवादरूप से अकेले जाने का प्रसंग आने पर विविध प्रकार १.गा.३०३८-३१३८। २. गा.३१४०। ३. गा.३१४१-३२०६। (५६)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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