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पिप्पलक, सूची, आरी, नखहरणिका आदि, ३. नंदीभाजनद्वार; ४. धर्मकरकद्वार; ५. परतीर्थिकोपकरणद्वार; ६. गुलिकाद्वार, ७. खोलद्वार, अध्वगमनोपयोगी उपकरण न लेने वाले के लिए प्रायश्चित्त; प्रयाण करते समय शकुनावलोकन, सिंहपर्षदा, वृषभपर्षदा और मृगपर्षदा का स्वरूप; मार्ग में अन्न-जल प्राप्त न होने पर उसकी प्राप्ति की विधि और तद्विषयक द्वार – १. प्रतिसार्थद्वार, २. स्तेनपल्लीद्वार, ३. शून्यग्रामद्वार, ४. वृक्षादिप्रलोकनद्वार, ५. नंदिद्वार, ६. द्विविधद्रव्यद्वार, उत्सर्गरूप से रात्रि में संस्तारक, वसति आदि ग्रहण करने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, रात्रि में वसति आदि ग्रहण करने के आपवादिक कारण; गीतार्थ निर्ग्रथों के लिए वसति ग्रहण करने की विधि; अगीतार्थमिश्रित गीतार्थ निर्ग्रन्थों के लिए वसति ग्रहण करने की विधि; अंधेरे में वसति की प्रतिलेखना के लिए प्रकाश का उपयोग करने की विधि व यतनाएँ; ग्रामादि के बाहर वसति ग्रहण करने के लिए यतनाएँ; कुल, गण, संघ, आदि की रक्षा के निमित्त लगने वाले अपराधों की निर्दोषता और तद्विषयक सिंहत्रिकघातक कृतकरण श्रमण का उदाहरण।'
रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृतसूत्रः
श्रमण-श्रमणियों को रात्रि के समय अथवा विकाल में वस्त्रादिग्रहण नहीं कल्पता । इस नियम का विश्लेषण करते हुए भाष्यकार ने निम्नलिखित बातों का स्पष्टीकरण किया है— रात्रि में वस्त्रादि ग्रहण करने से लगने वाले दोष, एवं प्रायश्चित्त, इस नियम से संबंधित अपवाद, संयतभद्र, गृहिभद्र, संयतप्रांत और गृहिप्रांत चौरविषयक चतुर्भंगी; संयतभद्र-गृहिप्रांत चौर द्वारा लूटे गये गृहस्थ को वस्त्रादि देने की विधि; गृहिभद्र - संयतप्रांत चौर द्वारा श्रमण और श्रमणी इन दो में से कोई एक लूट लिया गया हो तो परस्पर वस्त्र आदान-प्रदान करने की विधि, श्रमण- गृहस्थ, श्रमण-श्रमणी, समनोज्ञअमनोज्ञ अथवा संविग्न-असंविग्न ये दोनों पक्ष लूट लिये गये हों उस समय एक दूसरे को आदान-प्रदान करने की विधि। ' हृताहृतिका-हरिताहृतिकाप्रकृतसूत्रः
पहले हृत अर्थात् हरा गया हो और बाद में आहत अर्थात् लाया गया हो उसे हताहत कहते हैं। हरित अर्थात् वनस्पति में आहत अर्थात् प्रक्षिप्त को हरिताहत कहते है। चोरों द्वारा जिस वस्त्र का पहले हरण किया गया हो और बाद में वापस कर दिया गया हो अथवा जिसे चुराकर वनस्पति आदि में फेंक दिया गया हो उसके ग्रहणसंबंधी नियमों पर प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में प्रकाश डा गया है। प्रसंगवशात् मार्ग में आचार्य को गुप्त रखने की विधि और आवश्यकता का भी विवेचन गया है।
१. गा. २८३६-२९६८ । २.गा. २९६९-३०००। ३. गा. ३००१-३०३७/
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