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________________ समावेश किया गया है—निग्रंथीविषयक अपावृतद्वारोपाश्रय सूत्र आचार्य यदि प्रवर्तिनी को न समझावे, प्रवर्तिनी यदि अपनी साध्वियों को न सुनावे, साध्वियाँ यदि उसे न सुनें तो उन्हें लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, बिना दरवाजे के उपाश्रय में रहने वाली प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और श्रमणियों को लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, आपवादिक रूप से बिना द्वार के उपाश्रय में रहने की विधि, इस प्रकार के उपाश्रय में द्विदलकटादि बाँधने की विधि, द्वारपालिका श्रमणी और उसके गुण, गणिनी, द्वारपालिका-प्रतिहारसाध्वी एवं अन्य साध्वियों के निवासस्थान का निर्देश, प्रस्रवण=पेशाब आदि के लिये बाहर जाने-आने में विलंब करने वाली श्रमणियों को फटकारने की विधि, श्रमणी के बजाय कोई अन्य व्यक्ति उपाश्रय में न घुस जाए इसके लिए उसकी परीक्षा की विधि, प्रतिहारसाध्वी द्वारा उपाश्रय के द्वार की रक्षा, शयनसंबंधी यतनाएँ, रात्रि के समय कोई मनुष्य उपाश्रय में घुस जाए तो उसे बाहर निकालने की विधि, विहार आदि के समय मार्ग में आने वाले गाँवों में सुरक्षित द्वार वाला उपाश्रय न मिले तथा कोई अनपेक्षित भयप्रद घटना घट जाए तो तरुण और वृद्ध साध्वियों को किस प्रकार उसका सामना करना चाहिए इसका निर्देश।' साधु बिना दरवाजे के उपाश्रय में रह सकते हैं। उन्हें उत्सर्गरूप से उपाश्रय का द्वार बंद नहीं करना चाहिए किंतु अपवादरूप से वैसा किया जा सकता है। अपवादरूप कारणों के विद्यमान रहते हुए द्वार बंद न करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। घटीमात्रकप्रकृतसूत्रः __ श्रमणियों के लिए घटीमात्रक घडा रखना व उसका उपयोग करना विहित है किंतु श्रमणों के लिए घटीमात्रक रखना अथवा उसका उपयोग करना निषिद्ध है। निष्कारण घटीमात्रक रखने से साधुओं को दोष लगते हैं। हाँ, अपवादरूप में उनके लिए घटीमात्रक रखना वर्जित नहीं है। श्रमणश्रमणियों विशेष कारणों से घटीमात्रक रखते हैं व उसका प्रयोग करते हैं। घटीमात्रक पास न होने की अवस्था में उन्हें विविध यतनाओं का सेवन करना पडता है।' चिलिमिलिकाप्रकृतसूत्रः निग्रंथ-निग्रंथियाँ वस्त्र की चिलिमिलिका परदा रख सकते हैं व उसका प्रयोग कर सकते हैं। चिलिमिलिका स्वरूप वर्णन करने के लिए भाष्यकार ने निम्न द्वारों का आश्रय लिया है—१. भेदद्वार, २. प्ररूपणाद्वार-सूत्रमयी, रज्जुमयी, वल्कलमयी, दंडकमयी और कटकमयी चिलिमिलिका, ३. द्विविधप्रमाणद्वार, ४. उपभोगद्वार।" १.गा. २३२६-२३५२। २.गा. २३५३-२३६१। ३.गा. २३६१-२३७०। ४.गा. २३७१-२३८२। (४९)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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