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४. उच्चनीचद्वार श्रमण-श्रमणियों की एक-दूसरे पर दृष्टि पडनेवाले उपाश्रय में रहने से लगनेवाले दोष और तत्संबंधी प्रायश्चित्त, दृष्टि-दोष से उत्पन्न होनेवाले दस प्रकार के काम-विकार के आवेग—१. चिंता, २. दर्शनेच्छा, ३. दीर्घनिःश्वास, ४. ज्वर, ५. दाह, ६. भक्तारुचि, ७. मूर्छा, ८. उन्माद, ९. निश्चेष्टा और १०. मरण,
५. धर्मकथाद्वार—जहाँ निग्रंथ-निग्रंथियाँ एक-दूसरे के पास में रहते हों वहाँ रात्रि के समय धर्मकथा, स्वाध्याय आदि करने की विधि , दुर्भिक्ष आदि कारणों से अकस्मात् एकवगडा-अनेकद्वार वाले ग्रामादि में एक साथ आने का अवसर उपस्थित होने पर उपाश्रय आदि की प्राप्ति का प्रयत्न तथा योग्य उपाश्रय के अभाव में एक-दूसरे के उपाश्रय के समीप रहने का प्रसंग आने पर एक-दूसरे के व्यवहार से संबंध रखनेवाली यतनाएँ।
अनेकवगडा-एकद्वार वाले ग्राम, नगर आदि में साधु-साध्वियों को साथ रहने से लगने वाले दोषों की ओर निर्देश करते हुए कुसुंबल वस्त्र की रक्षा के लिए नग्न होने वाले अगारी, अश्व, फुफुक और पेशी के उदाहरण दिये गये हैं।'
द्वितीय वगडासूत्र की व्याख्या करते हुए इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि श्रमणश्रमणियों को अनेकवगडा-अनेकद्वार वाले ग्राम, नगर आदि में रहना चाहिए। जिस ग्राम आदि में श्रमण और श्रमणियों की भिक्षाभूमि, स्थंडिलभूमि, विहारभूमि, आदि भिन्न-भिन्न हों उन्हें रहना चाहिए। आपणगृहादिप्रकृतसूत्रः
आपणगृह, रथ्यामुख, शृंगाटक, चतुष्क, चत्वर, अंतरापण, आदि पदों की व्याख्या करते हुए आचार्य ने इन स्थानों पर बने हुए उपाश्रय में रहने वाली श्रमणियों को लगने वाले दोषों और प्रायश्चित्तों का वर्णन किया है। सार्वजनिक स्थानों में बने हुए उपाश्रयों में रहने वाली श्रमणियों के मन में युवक, वेश्याएँ, वरघोडे, राजा आदि अलंकृत व्यक्तियों को देखने से अनेक दोषों का उद्भव होता है। इस प्रकार आम रास्ते पर रहने वाली साध्वियों को देख कर लोगों के मन में अनेक प्रकार के अवर्णवादादि दोष उत्पन्न होते हैं। यदि किसी कारण से इस प्रकार के उपाश्रय में रहना ही पडे तो उसके लिये आचार्य ने विविध यतनाओं का विधान भी किया है।' अपावृतद्वारोपाश्रयप्रकृतसूत्रः
श्रमणियों को बिना द्वार के खुले उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। कदाचित् द्वारयुक्त उपाश्रय अप्राप्य हो तो खुले उपाश्रय में परदा बाँध कर रहना चाहिए। इस सूत्र की व्याख्या में निम्न बातों का
१.गा.२२३२-२२७७। २. गा.२२७८-२२८७। ३.गा.२२८८-९। ४.गा.२२९५-२३२५।
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