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________________ दकतीरप्रकृतसूत्रः निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए जलाशय, नदी आदि पानी के स्थानों के पास अथवा किनारे खडा रहना, बैठना, सोना, खाना-पीना, स्वाध्याय-ध्यान कायोत्सर्ग आदि करना निषिद्ध है। इसके प्रतिपादन के लिए निम्नलिखित विषयों पर प्रकाश डाला गया है—दकतीर की सीमा, पानी के किनारे खडे रहने, बैठने आदि से लगने वाले अधिकरण आदि दोष, अधिकरण का स्वरूप, जलाशय आदि के पास श्रमण-श्रमणियों को देख कर स्त्री, पुरुष, पशु आदि की ओर से उत्पन्न होने वाले अधिकरण दोष का स्वरूप, पानी के पास खडे रहने आदि दस स्थानों से संबंधित सामान्य प्रायश्चित्त, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला और प्रचलाप्रचला का स्वरूप, संपातिम और असंपातिम जल के किनारे बैठने आदि दस स्थानों का सेवन करने वाले आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लक इन पाँच प्रकार के श्रमणों तथा प्रवर्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा और क्षुल्लिका-इन पाँच प्रकार की श्रमणियों की दृष्टि से प्रायश्चित्त के विविध आदेश, असंपातिम और संपातिम का स्वरूप (जलज मत्स्य-मंडूकादि असंपातिम है। उनसे युक्त जल के किनारे को असंपातिम दकतीर कहते हैं। शेष प्राणी संपातिम हैं। उनसे युक्त तीर को संपातिम दकतीर कहते हैं। अथवा, केवल पक्षी संपातिम है और तद्भिन्न शेष प्राणी असंपातिम हैं। उनसे युक्त जलतीर क्रमशः संपातिम और असंपातिम है।), यूपक-जलमध्यवर्ती तट का स्वरूप और तत्संबंधी प्रायश्चित्त, जल के किनारे आतापना लेने से लगने वाले दोष, दकतीरद्वार, यूपकद्वार, और आतापनाद्वार संबंधी अपवाद और यतनाएँ। चित्रकर्मप्रकृतसूत्रः साधु-साध्वियों को चित्रकर्मवाले उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए। इस विषय का विवेचन करते हुए भाष्यकार ने निर्दोष और सदोष चित्रकर्म का स्वरूप, आचार्य, उपाध्याय आदि की दृष्टि से चित्रकर्म वाले उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, चित्रकर्मयुक्त उपाश्रय में रहने से लगने वाले विकथा, स्वाध्याय-व्याघात आदि दोष, आपवादिक रूप से चित्रकर्मयुक्त उपाश्रय में रहना पड़े तो उसके लिए विविध यतनाएँ आदि बातों का स्पष्टीकरण किया है। सागारिकनिश्राप्रकृतसूत्रः श्रमणियों को शय्यातर वसति के स्वामी की निश्रा(संरक्षण) में ही रहना चाहिए। सागारिक शय्यातर की निश्रा में न रहने वाली श्रमणियों को विविध दोष लगते हैं। इन दोषों का स्वरूप समझाने के लिए आचार्य ने गवादि-पशुवर्ग, अजा, पक्वान्न, इक्षु, घृत आदि के दृष्टांत दिए हैं। अपवाद के रूप में सागारिक की निश्रा के अभाव में रहने का अवसर आने पर किस प्रकार के १.गा. २३८३-२४२५। २.गा. २४२६-२४३३। (५०)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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