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________________ कहाँ रखना चाहिए, उसकी प्राप्ति के लिए गवेषणा किस प्रकार करनी चाहिए, ग्लान साधु के विशोषणसाध्य रोग के लिए उपवास की चिकित्सा, आठ प्रकार के वैद्य (१. संविग्न, २. असंविग्न, ३. लिंगी, ४. श्रावक, ५. संज्ञी, ६. अनभिगृहीत असंज्ञी (मिथ्या-दृष्टि), ७. अभिगृहीत असंज्ञी, ८. परतीर्थिक ), इनके क्रमभंग से लगने वाले दोष, और उनका प्रायश्चित्त, वैद्य के पास जाने की विधि, वैद्य के पास ग्लान साधु को ले जाना या ग्लान साधु के पास वैद्य को लाना, वैद्य के पास कैसा साधु जाए, कितने साधु जाएँ, उनके वस्त्र आदि कैसे हों, जाते समय कैसे शकुन देखे जाएँ, वैद्य के पास जाने वाले साधु को किस काम में व्यस्त होने पर वैद्य से रोगी साधु के विषय में बातचीत करनी चाहिए, किस काम में व्यस्त होने पर बातचीत नहीं करनी चाहिए, वैद्य के घर आने के लिए श्रावकों को संकेत, वैद्य के पास जाकर रुग्ण साध के स्वास्थ्य के समाचार कहने का क्रम, ग्लान साधु के लिए वैद्य का संकेत, वैद्य द्वारा बताये गए पथ्यापथ्य लभ्य हैं कि नहीं इसका विचार और लभ्य न होने पर वैद्य से प्रश्न, ग्लान साधु के लिए वैद्य का उपाश्रय में आना, उपाश्रय में आये हुए वैद्य के साथ व्यवहार करने की विधि, वैद्य के उपाश्रय में आने पर आचार्य आदि के उठने, वैद्य को आसन देने और रोगी को दिखाने की विधि, अविधि से उठने आदि में दोष और उनका प्रायश्चित्त, औषध आदि के प्रबंध के विषय में भद्रक वैद्य का प्रश्न, धर्मभावनारहित वैद्य के लिए भोजनादि तथा औषधादि के मूल्य की व्यवस्था, बाहर से वैद्य को बुलाने एवं उसके खानपान की व्यवस्था करने की विधि, रोगी साधु और वैद्य की सेवा करने के कारण, रोगी तथा उसकी सेवा करने वाले को अपवाद-सेवन के लिए प्रायश्चित्त, ग्लान साधु के स्थानांतर के कारण तथा एक-दूसरे समुदाय के ग्लान साधु की सेवा के लिए परिवर्तन, ग्लान साधु की उपेक्षा करने वाले साधुओं को सेवा करने की शिक्षा नहीं देने वाले आचार्य के लिए प्रायश्चित्त, निर्दयता से रुग्ण साधु को उपाश्रय, गली आदि स्थानों में छोड़कर चले जाने वाले आचार्य को लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त, एक गच्छ रुग्ण साधु की सेवा कितने समय तक करे और बाद में उस साधु को किसे सौंपे, किन विशेष कारणों से किस प्रकार के विवेक के साथ किस प्रकार के ग्लान साधु को छोड़ा जा सकता हैं तथा इससे होने वाला लाभ इत्यादि। १०. गच्छप्रतिबद्धयथालंदिकद्वार इस द्वार में वाचना आदि के कारण गच्छ के साथ संबंध रखने वाले यथालंदिककल्पधारियों के वंदनादि व्यवहार तथा मासकल्प की मर्यादा का वर्णन किया गया है। ११. उपरिदोषद्वार इस में वर्षाऋतु से अतिरिक्त समय में एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने से लगने वाले दोषों का वर्णन किया गया है। १२. अपवादद्वार—यह अंतिम द्वार है। इस में एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के आपवादिक (४५)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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