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________________ बृहत्कल्पनिर्युक्तिः एवं भाष्य यह निर्युक्ति'भाष्यमिश्रित अवस्था में मिलती है। इसमें सर्व प्रथम तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है।' इसके बाद ज्ञान के विविध भेदों का निर्देश किया गया है कि ज्ञान और मंगल में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है। मंगल चार प्रकार का है - नाममंगल, स्थापनामंगल द्रव्यमंगल और भावमंगल।' इस प्रकार मंगल का निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया गया है और साथ ही ज्ञान के भेदों की चर्चा की गई है। अनुयोग का निक्षेप करते हुए कहा गया है कि नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव-इन सात भेदों से अनुयोग का निक्षेप होता है। ́ निरुक्त का अर्थ है निश्चित उक्त। वह दो प्रकार हैः सूत्रनिरुक्त और अर्थनिरुक्त।' अनुयोग का अर्थ इस प्रकार है : अनु अर्थात् पश्चाद्भूत जो योग है वह अनुयोग है। अथवा गुण अर्थात् स्तोकरूप जो योग है वह अनुयोग है। चूँकि यह पीछे होता है और स्तोकरूप में होता है इसलिए इसे अनुयोग कहते है।' कल्प के चार अनुयोगद्वार है: उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय। " कल्प और व्यवहार का श्रवण और अध्ययन करने वाला बहुश्रुत, चिरप्रव्रजित, कल्पिक, अचंचल, अवस्थित, मेधावी, अपरिश्रावी, विद्वान्, प्राप्तानुज्ञात और भावपरिणामक होता है। ' १० प्रथम उद्देशक के प्रारंभ में प्रलंबसूत्र का अधिकार है। उसकि सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति करते हुए कहा गया है कि आदि नकार, ग्रंथ, आम, ताल, प्रलंब और भिन्न- इन सब पदों का नामादि भेद से चार प्रकार का निक्षेप होता है। इसके बाद प्रलंबग्रहण से संबंध रखने वाले प्रायश्चित्तों का वर्णन किया गया है। तत्रग्रहण का विवेचन करते हुए कहा गया है कि तत्रग्रहण दो प्रकार का होता है: सपरिग्रह। सपरिग्रह तीन प्रकार का होता है— देवपरिगृहीत, मनुष्यपरिगृहीत और तिर्यक्परिगृहीत।' मासकल्पप्रकृत सूत्रों की व्याख्या करते हुए ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडंब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका आदि पदों का निक्षेपपद्धति से विवेचन किया गया है।" आगे की कुछ गाथाओं में जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के आहारविहार की चर्चा है। व्यवशमनप्रकृत सूत्र की नियुक्ति करते हुए आचार्य कहते है कि क्षमित, व्यवशमित, विनाशित और क्षपित एकार्थबोधक पद है। प्राभृत, प्रहेणक और प्रणयन १. निर्युक्ति-लघुभाष्य-वृत्तिसहित - संपादक मुनि चतुरविजय तथा पुण्यविजय, प्रकाशकः जैन आत्मानंद सभा, भावनगर, सन् १९३३ १९४२ । २. गा. १ । ३. गा. ३-५ । ४. गा. १५१। ५. गा. १८८ । ६. गा. १९० । ७. गा. २५६ । ८. गा. ४०० - १ | ९. गा.८१५। १०.गा.८९१ - २ । ११. गा. १०८८- ११२० । (३५)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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