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निग्रंथ के पैर में कांटा आदि लग जाए और निग्रंथ उसे निकालने में असमर्थ हो तो निग्रंथी उसे निकाल सकती है। इसी प्रकार निग्रंथ के आँख में मच्छर आदि गिर जाने पर निपॅथी उसे अपने हाथ से निकाल सकती है। यही बात निग्रंथियों के पैर के काँटे एवं आँख के मच्छर आदि के विषय में समझनी चाहिए।
साधु के डूबने, गिरने, फिसलने आदि का मौका आने पर साध्वी एवं साध्वी के डूबने आदि के अवसर पर साधु हाथ आदि पकड कर एक-दूसरे को डूबने से बचा सकते हैं।
क्षिप्तचित्त निग्रंथि को निग्रंथ अपने हाथ से पकडकर उसके स्थान पर पहुँचा दे तो उसे कोई दोष नहीं लगता। इसी प्रकार दीप्तचित्त साध्वी को भी साधु अपने हाथ से पकड़ कर उपाश्रय आदि तक पहुँचा सकता है।
साध्वाचार के छ: परिमंथ-व्याघातक कहे गये हैं— कौकुचित (कुचेष्टा), मौखरिक (बहुभाषी), चक्षुर्लोल, तिन्तिणिक (खेदयुक्त), इच्छालोभ और भिज्जानिदानकरण (लोभवशात् निदानकरण)।
___ छ: प्रकार की कल्पस्थिति कही गई है— सामायिकसंयतकल्पस्थित, छेदोपस्थापनीय संयतकल्पस्थिति, निर्विशमान- कल्पस्थिति, निर्विष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति। कल्पशास्त्रोक्त साध्वाचार की मर्यादा का नाम कल्पस्थिति है।
बृहत्कल्पसूत्र के इस परिचय से स्पष्ट है कि इस लघुकाय ग्रंथ का जैन आचारशास्त्र की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। साधु-साध्वियों के जीवन एवं व्यवहार से संबंधित अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का सुनिश्चित विधान इसकी विशेषता है।
इसी विशेषता के कारण यह कल्पशास्त्र(आचारशास्त्र) कहा जाता है।
१. उ.६, सू.३-६। २. उ.६, सू.७–९। ३. उ.६.सू.१०–१८। ४. उ.६, सू.१९(इनका विशेष अर्थवृत्ति आदि में देखना चाहिए)। ५.उ.६, सू.२०॥
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