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________________ अथवा किनारे खडे रहना, बैठना, लेटना, सोना, खाना-पीना, स्वाध्याय-ध्यान-कायोत्सर्ग आदि करना अकल्प्य है। चित्रकर्मविषयक सूत्रों में बताया गया है कि निग्रंथ-निग्रंथियों को चित्रकर्मयुक्त उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए अपितु चित्रकर्मरहित उपाश्रय में ठहरना चाहिए। सागरिकनिश्राविषयक सूत्रों में बताया है कि निग्रंथियों को सागारिक– शय्यातर— वसतिपति— मकानमालिक की निश्रा— रक्षा आदि की स्वीकृति के बिना कहीं पर भी नहीं रहना चाहिए। उन्हें सागारिक की निश्रा में ही रहना कल्प्य है। निग्रंथ सागारिक की निश्रा अथवा अनिश्रा में रह सकते हैं। सागारिकोपाश्रयप्रकृत सूत्रों में इस बात का विचार किया गया है कि निग्रंथ-निग्रंथियों को सागारिक के संबंध वाले— स्त्री-पुरुष, धन-धान्य आदि से युक्त— उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। निर्ग्रथों को स्त्री-सागारिक के उपाश्रय में रहना अकल्प्य है। निग्रंथियों को पुरुष-सागारिक के उपाश्रय में रहना अकल्प्य है। दूसरे शब्दों में निर्ग्रथों को पुरुष-सागारिक एवं निग्रंथियों को स्त्री-सागारिक के उपाश्रय में रहना कल्प्य है। प्रतिबद्धशय्याप्रकृत सूत्रों में बताया गया है कि जिस उपाश्रय के समीप( सटे हुए प्रतिबद्ध) गृहस्थ रहते हों वहाँ साधुओं को नहीं रहना चाहिए किंतु साध्वियाँ रह सकती हैं। गृहपतिकुलमध्यवासविषयक सूत्रों में निग्रंथों एवं निग्रंथियों दोनो के लिए गृहपतिकुलमध्यवास अर्थात् गृहस्थ के घर के बीचोबीच होकर जाने-आने का काम पडता हो वैसे स्थान में रहने का निषेध किया गया है। अधिकरण(अथवा प्राभृत अथवा व्यवशमन) से संबंधित सूत्र में सूत्रकार ने इस बात की ओर निर्देश किया है कि भिक्षु, आचार्य, उपाध्याय, भिक्षुणी आदि का एक दूसरे से झगडा हुआ हो तो परस्पर उपशम धारण कर कलह/अधिकरण/प्राभृत शांत कर लेना चाहिए। जो शांत होता है वह आराधक है और जो शांत नहीं होता, वह विराधक है। श्रमणधर्म का सार उपशम अर्थात् शान्ति है— उवसमसारं सामण्णं। चारसंबंधी प्रथम सूत्र में निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए चातुर्मास वर्षाऋतु में एक गाँव से दूसरे गाँव जाने का निषेध किया गया है यथा द्वितीय सूत्र में हेमंत एवं ग्रीष्मऋतु में विहार करने विचरने का विधान किया गया है। १. अधिकरणं कलहः प्राभृतमित्येकोऽर्थः। -क्षेमकीर्तिकृत वृति, पृ.७५१। विनय-पिटक में अधिकरण का सुंदर विवेचन किया गया है। इसके लिए जिज्ञासुओंको उसका चार अधिकरणवाला प्रकरण देखना चाहिए। (२४)
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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