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मासकल्पविषयक प्रथम सूत्र में साधुओं के ऋतुबद्धकाल अर्थात् हेमंत एवं ग्रीष्म ऋतु के आठ महिनो में एक स्थान पर रहने के अधिकतम समय का विधान किया गया है। साधुओं को सरिक्षेप अर्थात् सप्राचीर एवं अबाहिरिक अर्थात् प्राचीर के बाहर की बस्ती से रहित(प्राचीरबहिर्वर्तिनी गृहपद्धति से रहित) निम्नोक्त सोलह प्रकार के स्थानों में वर्षाऋतु को छोड़कर अन्य समय में एक साथ एक मास से अधिक रहना अकल्प्य है—
१. ग्राम(जहाँ राज्य की ओर से अठारह प्रकार के कर लिए जाते हों)। २. नगर(जहाँ अठारह प्रकार के करों में से एक भी प्रकार का कर न लिया जाता हो)। ३. खेट(जिसके चारों ओर मिट्टि की दीवार हो)।
कर्बट(जहाँ कम लोग रहते हों)। ५. मडंब(जिसके बाद ढाई कोस तक कोई गाँव न हो)।
पत्तन(जहाँ सब वस्तुएँ उपलब्ध हों)।
आकर(जहाँ धातु की खाने हों)। ८. द्रोणमुख(जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो, जहाँ समुद्री माल आकर
उतरता हो)।
निगम(जहाँ व्यापारियों कि वसति हो)। १०. राजधानी(जहाँ राजा के रहने के महल आदि हों)। ११. आश्रम(जहाँ तपस्वी आदि रहते हों)। १२. निवेश— सन्निवेश(जहाँ सार्थवाह आकर उतरते हों)। १३. संबाध— संबाह(जहाँ कृषक रहते हों अथवा अन्य गांव के लोग अपने गांव से धन
आदि की रक्षा के निमित्त पर्वत, गुफा आदि में आकर ठहरे हुए हों)। १४. घोष(जहाँ गाय आदि चराने वाले गूजर लोग— ग्वाले रहते हों)। १५. अंशिका(गाँव का अर्ध, तृतीय अथवा चतुर्थ भाग)। १६. पुटभेदन(जहाँ परगाँव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों)। मासकल्पविषयक द्वितीय सूत्र में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि ग्राम, नगर आदि
१. इन शब्दों की व्याख्या के लिए देखिए—बृहत्कल्प-लघुभाष्य, गाथा १०८८-१०९३।
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