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________________ बृहत्कल्पसूत्र बृहत्कल्पसूत्र का छेदसूत्रों में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसमें कोई संदेह नहीं। अन्य छेदसूत्रों की भाँति इसमें भी साधुओं के आचार-विषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवाद, तप-प्रायश्चित्त, आदि का विचार किया गया है। इसमें छः उद्देश हैं जो सभी गद्य में हैं। इसका ग्रंथमान ४७५ श्लोक-प्रमाण है। प्रथम उद्देश प्रथम उद्देश में पचास सूत्र हैं। प्रथम पांच सूत्र तालप्रलंबविषयक हैं। प्रथम ताल-प्रलंबविषयक सूत्र में निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए ताल एवं प्रलंब ग्रहण करने का निषेध किया गया है। इसमें बताया गया है कि निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए अभिन्न अर्थात् अविदारित, आम अर्थात् अपक्व, ताल अर्थात् तालफल तथा प्रलंब अर्थात् मूल का प्रतिग्रहण अर्थात् आदान, अकल्प्य अर्थात् निषिद्ध है(नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए) श्रमण-श्रमणियों को अखंड एवं अपक्व तालफल तथा तालमूल ग्रहण नहीं करना चाहिए। द्वितीय सूत्र में बताया गया है कि निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए विदारित अपक्व ताल-प्रलंब लेना कल्प्य अर्थात् विहित है। तीसरे सूत्र में बताया है कि निर्ग्रन्थों के लिए पक्व ताल-प्रलंब, चाहे विदारित हो अथवा अविदारित, ग्रहण करना कल्प्य है। चतुर्थ सूत्र में यह बताया है कि निग्रंथ के लिए अभिन्न— अविदारित पक्व ताल-प्रलंब ग्रहण करना अकल्प्य है। पंचम सूत्र में यह बताया गया है कि निग्रंथों के लिए विदारित पक्व तालप्रलंब ग्रहण करना कल्प्य है किंतु जो विधिपूर्वक विदारित किया गया हो वही, न की अविधिपूर्वक विदारित किया हुआ। १. जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भाग-२. सप्तमप्रकरण बृहत्कल्प(पत्र१९२) २. (अ) सं.जिनेन्द्रगणि, हर्षपुष्पामृत जैनग्रन्थमाला लाखाबावल, शान्तिपुरी सौराष्ट्र, १९७७, रतनलाल दोशी, अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना १९८०। (आ) गुजराती अनुवाद सहित— डॉ. जीवराज घेलाभाई दोशी, अहमदाबाद, सन् १९१५। (इ) हिंदी अनुवाद(अमोलकऋषिकृत) सहित-सुखदेवसवाय ज्वालाप्रसाद जौहरी, हैदराबाद, वी.सं. २४४५। (ई)अज्ञात टीकासहित-सम्यक् ज्ञान प्रचारक मंडल, जोधपुर। (उ) नियुक्ति लघुभाष्य तथा मलयगिरि-क्षेमकीर्तिकृत टीकासहित— जैन आत्मानंद सभा, भावनगर, सन् १९३३-४२। (ऊ) चूर्णि, भाष्यावचूरि सहित(घासीलालजी कृत) अखिल भारतीय स्थानकवासी श्वे. जैनशास्त्रोद्धारक समिति, अहमदाबाद, १९६९। ३. हिन्दी एवं गुजराती अनुवादों में इस सूत्र का अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता। इन में ताल का अर्थ केला एवं प्रलंब का अर्थलम्बी आकृति वाला किया गया है टीकाकार आचार्य क्षेमकीर्ति ने मूल शब्दों का अर्थ इस प्रकार किया हैं— नो कल्प्यते— न युज्यते, निग्रंथानां— साधूनां, निर्ग्रथीनां— साध्वीनां, आमं— अपक्वं, तल— वृक्षविशेषस्तत्र भवं तालं— तालफलं, प्रकर्षेण लम्बते इति प्रलम्बम्— मूलं, तालं च प्रलम्बंचतालप्रलम्बं समाहार द्वन्द्वः, अभिन्नं द्रव्यतो अविदारितंभावतोऽव्यपगतजीवं, प्रतिग्रहीतुं—आदातुमित्यर्थः।
SR No.007786
Book TitleKappasuttam Vhas Vises Chunni Sahiyam Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami, Sanghdasgani Kshamashraman
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages504
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bruhatkalpa
File Size3 MB
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