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अर्धमागधी व्याकरण
(३) निवारण :- (१) हुं पजत्तं धम्मवएण। (सुपास ६१७) हं! धर्मासाठी खर्च पुरे. (२) हुं पज्जत्तं बहुणा पत्थुय विग्घावेहण विहलेण। (सुर १.४३) हं! प्रस्तुत विघातक असे हे विफल विवेचन पुरे.
(४) निर्धारण :- (१) हुं नायं। (सुपास ४८९) हूं। कळले. (२) हुं तं पि हु न हु जुत्तं। (सुर २.१९७) हं। ते सुद्धा खरच योग्य नाही.
(५) निश्चय : (१) हुं विन्नायं एयं। (सुपास ५३६) हूं। हे कळले (२) हुं जाणिओ परमत्थो। (जिन पृ.२३) हूं! खरी गोष्ट कळली.
(६) वितर्क :- हुं संकेयठाणं न सूइयं। (धर्मो पृ.४८) हां। संकेतस्थान सुचविले नाही.
(७) होय :- राया भणेइ हुं हुं। (सिरि १५३) राजा हूं हूं' (होय) म्हणाला.
संबोधन :- (१) हे खंद्या। (अंत ७६) अरे खंद्या! (२) हे कुलवइ। (महा पृ.१४७ अ) हे कुलपति! ४०० हो
संबोधन :- राइणा भणियं - हो कीस न गेण्हसि। (धर्मो. पृ. १७८) राजाने म्हटले 'अरे! कां घेत नाहीस?' ४०१ इतर काही अव्ययांचे उपयोग
(१) काही अव्यये कधी कधी जोडीने वापरली जातात.
इओ तओ (इकडे तिकडे), अन्नया कयाइ (एकदा केव्हां तरी), परंतु, अहवा, किंतु, किं पुण, इत्यादी.
(२) स्थलकालदर्शक अव्ययांच्या व्दिरुक्तीने पुढील अर्थ होतो :
(अ) जोर दर्शविण्यास :- (क) जत्थ जत्थ - तत्थ तत्थ, जया जयातया तया
(ख) सणियं सणियं, पुणो पुणो, मंद मंद, कह कहवि, अभिक्खणं. (आ) कालभिन्नता व स्थलभिन्नता दर्शविण्यास :
काल :- कयाइ :- कयाइ जलकीलं कुणंति। कयाइ दोलं दोलण सुहं अणुहवंति। (नल पृ.७) कधी जलक्रीडा करीत, कधी झोपाळ्यावर बसून झोक्याचे सुख अनुभवीत.