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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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स्वानुभवज्ञान और उस समय के alb. विशिष्ट आनन्द का वर्णन .cks
जो ज्ञान, आत्मा को जाने, वह प्रत्यक्ष और पर को जाने, वह परोक्ष - ऐसी व्याख्या नहीं है। क्योंकि मति-श्रुतज्ञान, आत्मा को जानते हैं, तथापि उन्हें परोक्ष गिना है और अवधि-मन:पर्ययज्ञान पर को जानते हैं, तथापि उन्हें प्रत्यक्ष कहा है। जो ज्ञान स्पष्ट हो और सीधे आत्मा से हो, उस ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और जो अस्पष्ट हो, जिसमें इन्द्रियादि पर का कुछ अवलम्बन हो, उसे परोक्ष कहते हैं। अब मति-श्रुतज्ञान जब स्वसन्मुख होकर स्वानुभव में वर्तते हैं, तब उनमें से इन्द्रिय-मन का जितना अवलम्बन छूटा है, उतना तो प्रत्यक्षपना है, उसमें जो स्वानुभव हुआ, वह अकेले आत्मा से ही हुआ है, दूसरे किसी का उसमें अवलम्बन नहीं है और वह स्वानुभव स्पष्ट है; इसलिए वह प्रत्यक्ष है। वह प्रत्यक्षपना अध्यात्मदृष्टिवाले को समझ में आता है।
अहा! मति-श्रुतज्ञान, इन्द्रिय और मन के बिना जाने!... भाई! जानने का स्वभाव तो आत्मा का है न! आत्मा स्वयं अपने को मन और इन्द्रिय बिना ही जानता है। प्रवचनसार की १७२ वीं गाथा में अलिंगग्रहण के बीस अर्थ करते हुए आचार्यदेव ने स्पष्ट किया है कि आत्मा अकेले अनुमान द्वारा या अकेले इन्द्रिय-मन द्वारा नहीं जानता; इसलिए अकेले परोक्षज्ञान द्वारा वह ज्ञात नहीं होता। इन्द्रियजन्य मति-श्रुतज्ञान को सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष कहा है, वह पर को जानने की अपेक्षा से; स्व को जानने में तो वे ज्ञान, इन्द्रियातीत स्वानुभव-प्रत्यक्ष हैं। यह स्वानुभव-प्रत्यक्षपना अध्यात्मशैली में
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