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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
निश्चयसम्यक्त्व न हो तो साधकपना ही नहीं रहता, मोक्षमार्ग ही नहीं रहता। फिर निश्चयसम्यक्त्व में भले किसी को औपशमिक हो, किसी को क्षायोपशमिक हो और किसी को क्षायिक हो; शुद्धात्मा की प्रतीति तो तीनों में समान है। ___ क्षायिकसम्यक्त्व तो सर्वथा निर्मल है; औपशमिकसम्यक्त्व भी वर्तमान में तो क्षायिक जैसा ही निर्मल है, परन्तु उस जीव को नितरे हुए पानी की तरह तल में से (सत्ता में से) अभी मिथ्यात्व की प्रकृति का नाश नहीं हुआ है और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में सम्यक्त्व को बाधा न पहुँचावे,—ऐसा सम्यक्-मोहनीयप्रकृति सम्बन्धी विकार है। तीनों प्रकार के समकित में शुद्ध आत्मा की प्रतीति वर्तती है। प्रतीति की अपेक्षा से तो सम्यग्दृष्टि को सिद्धसमान कहा है।
प्रश्न : चौथे गुणस्थानवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टि की प्रतीति तो सिद्धभगवान जैसी होती है, परन्तु उपशमसम्यग्दृष्टि की प्रतीति भी क्या सिद्धभगवान जैसी है?
उत्तर : हाँ; उपशम समकिती की प्रतीति में जो शुद्धात्मा आया है, वह भी जैसा सिद्ध की प्रतीति में आया है, वैसा ही है। शुद्ध आत्मा की प्रतीति तो तीनों समकिती की समान ही है, उसमें कोई अन्तर नहीं है।
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