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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [77 देखो! स्वानुभूति में मति-श्रुतज्ञान को अतीन्द्रिय कहा। स्वानुभव के समय मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों स्वरूपसन्मुख ही हुए हैं; इसलिए इन्द्रियातीत हुए हैं। इन्द्रियों का या मन का अवलम्बन उनमें नहीं है; इसलिए उस अनुभव को अतीन्द्रिय कहते हैं। मन का अवलम्बन नहीं, इसलिए राग का भी अवलम्बन नहीं, यह बात उसमें आ ही गयी। राग में तो मन का अवलम्बन है। राग के (व्यवहार के) अवलम्बन से निश्चय-स्वानुभव प्राप्त होगा-ऐसा जो मानता है, उसे मन के अवलम्बनरहित अतीन्द्रिय स्वानुभव कैसा है?—इसकी खबर नहीं है; इसलिए वह तो राग का और मन का अवलम्बन छोड़कर आगे ही नहीं बढ़ता। उसे अतीन्द्रियज्ञान या अतीन्द्रियसुख नहीं होता। अहा! इस स्वसन्मुख मति-श्रुतज्ञान की महिमा का क्या कहना? जिसने विकल्प से पार होकर सम्पूर्ण आत्मा को सीधे स्वज्ञेय बनाया, वह तो केवलज्ञान का साधक है। सम्यग्दृष्टि के (चौथे गुणस्थान के भी) स्वानुभव को अतीन्द्रिय कहते हैं, क्योंकि उसमें इन्द्रियों का या मन का व्यापार नहीं है। इन्द्रियाँ तथा मन का व्यापार तो परसन्मुख होता है, स्वरूप में उपयोग के समय परसन्मुख का व्यापार नहीं है। इन्द्रियाँ और मन का ऐसा स्वभाव नहीं कि स्वानुभव में मददरूप हों। स्वानुभव है, उतने अंश में इन्द्रिय तथा मन का अवलम्बन छूटा है और ज्ञान, अतीन्द्रिय हुआ है। यदि इतना अतीन्द्रियपना न हो और इन्द्रिय का अवलम्बन ही रहे, तब तो आत्मा अकेले इन्द्रियज्ञान का विषय हो जाये-परन्तु ऐसा नहीं होता। प्रवचनसार में स्पष्ट कहा है कि 'आत्मा अलिंगग्राह्य' है, लिङ्ग से अर्थात् इन्द्रियों द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता, इन्द्रियों द्वारा Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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