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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
वह ज्ञात नहीं होता; इसलिए स्वानुभव से आत्मा को जाननेवाला ज्ञान, अतीन्द्रिय है। अतीन्द्रियज्ञान हो, वहीं अतीन्द्रियसुख होता है।
–मति-श्रुतज्ञान भी अतीन्द्रिय!!
–हाँ भाई! उस मति-श्रुतज्ञान की ही यह बात है। यह कहीं केवलज्ञान की बात नहीं है । ठेठ बारहवें गुणस्थान तक स्वानुभव का कार्य तो मति-श्रुतज्ञान से ही होता है। किसी को अवधिमनःपर्ययज्ञान खिला हो, तथापि निर्विकल्पध्यान के समय वह एक ओर रह जाता है, उसका उपयोग नहीं होता। मति-श्रुतज्ञान स्वानुभव के समय स्व में ऐसे एकाकार परिणमित हो जाते हैं कि मैं ज्ञाता है और शद्धात्मा मेरा स्वज्ञेय है-ऐसे ज्ञाता-ज्ञेय के भेद का विचार भी वहाँ नहीं रहता; वहाँ तो द्रव्य-पर्याय (ध्येय और ध्याता अथवा ज्ञेय और ज्ञान) एकरस होकर अनुभव में आते हैं। उस अनुभव की महिमा, वाणी और विकल्प से पार है। अपने स्वसंवेदन बिना मात्र वाणी या विकल्प से उसका वास्तविक ख्याल नहीं
आता। इसलिए समयसार में आचार्यदेव ने विशेष प्रेरणा दी है कि निज वैभव से मैं जिस शुद्ध आत्मा को दर्शाता हूँ, वह तुम तुम्हारे स्वानुभव से प्रमाण करना।
अहा! अध्यात्मरस की ऐसी बात! इसकी विचारधारा, इसका निर्णय और इसका अनुभव, यही करनेयोग्य है। इसके लिये सतत् अभ्यास चाहिए। सत्समागम से श्रवण करके, मनन करके, एकान्त में स्थिरचित्त से इसका अभ्यास करना चाहिए। इस मनुष्यभव में वस्तुतः करनेयोग्य यही है और अभी सही अवसर है-सब अवसर आ चुका है।
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