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________________ www.vitragvani.com 76] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 विचलित नहीं कर सकता–प्रतिकूल या अनुकूल कोई संयोग उसे डिगा नहीं सकता। जहाँ जगत से भिन्न ही चैतन्य गोला अनुभव में लिया, वहाँ पर का असर कैसा? और परभाव भी कैसे? परभाव, परभावों में हैं; मेरे चैतन्य गोले में परभाव नहीं है। अहा! ऐसा वेदन सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को होता है। ज्ञानस्वभाव के सम्यक् निर्णय के जोर से मति-श्रुतज्ञान को स्वसन्मुख झुकाने पर ऐसा स्वानुभव होता है। इस अनुभव में भगवान आत्मा प्रसिद्ध होता है । समयसार, गाथा-144 में इसका अलौकिक वर्णन किया है। वहाँ कहते हैं कि -प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय करके... (यहाँ तक अभी सविकल्पदशा है... परन्तु ज्ञान का झुकाव तो ज्ञानस्वभाव की ओर ढल रहा है)। पश्चात् आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिये अर्थात् अनुभव के लिये; परपदार्थों की प्रसिद्धि के कारण जो इन्द्रिय द्वारा और मन द्वारा प्रवर्तित बुद्धियाँ, उस बुद्धि को मर्यादा में लाकर मतिज्ञान तत्त्व को आत्मसन्मुख किया तथा अनेक प्रकार के नवतत्त्व के विकल्प से आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान तत्त्व को भी आत्मसन्मुख किया; इस प्रकार मति-श्रुतज्ञान को पर की ओर से विमुख करके आत्मस्वभाव में झुकाने से तुरन्त ही अत्यन्त विकल्परहित होकर आत्मा अपने शुद्धस्वरूप को अनुभव करता है, उसमें आत्मा सम्यक्प से दिखाई देता है और ज्ञात होता है; इसलिए वह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। इस अनुभव को 'पक्षातिक्रान्त' कहा है, क्योंकि उसमें नयपक्ष के कोई विकल्प नहीं है। ऐसा अनुभव करे, तब जीव को सम्यग्दर्शन हुआ कहलाता है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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