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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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क्षयोपशमज्ञान की शक्ति ही इतनी मन्द है कि एक समय में एक ओर ही उसकी प्रवृत्ति होती है, इसलिए या स्व को जानने में प्रवर्ते या पर को जानने में प्रवर्ते । अपने में तो ज्ञान के साथ आनन्द, प्रतीति इत्यादि समस्त गुणों का जो निर्मल परिणमन अभेद वर्तता है, उसे (अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा को) तन्मयरूप से जानता है। स्व को जानते समय आनन्दधारा में उपयोग तन्मय हुआ है, इसलिए विशिष्ट आनन्द उस निर्विकल्पदशा में वेदन में आता है।
धर्मी सबसे भिन्न का भिन्न ही रहता है। बाहर से देखनेवाले को दूसरों जैसा समान लगता है कि हम भी शुभ-अशुभ करते हैं और हमारी तरह यह धर्मी भी शुभाशुभ कर रहे हैं परन्तु भाई! उनकी परिणति अन्दर में राग से कोई भिन्न ही काम कर रही है। उनकी प्रतीति में, उनके ज्ञान में स्व-ज्ञेय कभी विस्मृत नहीं होता,उपयोग भले बाहर में कदाचित विषय-कषायों में या युद्ध इत्यादि में भी हो, उसी समय उनके अन्तर में श्रद्धा और ज्ञान की निर्मल गंगा का जो सम्यक् प्रवाह बह रहा है, वह यहाँ बताना है। ज्ञानगंगा का वह सम्यक् प्रवाह, समस्त विकार को धो डालेगा और केवलज्ञान समुद्र में जाकर मिलेगा। ___-ऐसे धर्मी को जिस समय स्वज्ञेय में उपयोग हो, उस समय की यह बात चलती है। अहा! निर्विकल्प अनुभव में चैतन्य गोला जगत से ऐसा भिन्न अनुभव में आता है कि बाहर में क्या हो रहा है, उसका लक्ष्य नहीं; देह का क्या होता है, अरे! देह है या नहींइसका भी लक्ष्य नहीं है; आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द में ही मग्न है। ऐसी स्थिति चौथे गुणस्थान में गृहस्थ श्रावक को भी होती है। जो ऐसे आत्मस्वरूप को साधने निकला, उसे जगत का कोई संयोग
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