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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 6
'केवलज्ञान का टुकड़ा' आत्मज्ञान की अचिन्त्य महिमा
अहा! देखो यह सम्यग्ज्ञान की केवलज्ञान के साथ सन्धि ! मति - श्रुतज्ञान को केवलज्ञान का अंश कौन कहे ? - कि जिसने पूर्ण ज्ञानस्वभाव को प्रतीति में लिया हो और उस स्वभाव के आधार से सम्यक् अंश प्रगट किया हो, वही पूर्णता के साथ की सन्धि से (पूर्णता के लक्ष्य से) कह सकता है कि मेरा यह ज्ञान है, वह केवलज्ञान का अंश है, केवलज्ञान की ही जाति है परन्तु जो राग में ही लीन वर्तता हो, उसका ज्ञान तो राग का हो गया है, उसे तो राग से भिन्न ज्ञानस्वभाव की खबर ही नहीं। वहाँ ' यह ज्ञान इस स्वभाव का अंश है'—ऐसा वह किस प्रकार जानेगा ? ज्ञान को ही पर से और राग से भिन्न नहीं जानता, वहाँ उसे स्वभाव का अंश कहना तो उसे कहाँ रहा ? स्वभाव के साथ जो एकता करता है, वही अपने ज्ञान को 'यह स्वभाव का अंश है ' - ऐसा जान सकता है। राग के साथ एकतावाला यह बात नहीं जान सकता।
अहा ! यह तो अलौकिक बात है ! मति श्रुतज्ञान को स्वभाव का अंश कहना अथवा तो केवलज्ञान का अंश कहना, यह बात अज्ञानी को समझ में नहीं आती क्योंकि उसे तो राग और ज्ञान एकमेक भासित होते हैं । ज्ञानी तो निःशङ्क जानता है कि जितने रागादि अंश हैं, वे सब मेरे ज्ञान से भिन्न परभाव हैं और जितने ज्ञानादि अंश हैं, वे सब मेरे स्वभाव हैं; वे मेरे स्वभाव के ही अंश हैं और वे अंश बढ़-बढ़कर केवलज्ञान होनेवाला है।
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