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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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प्रश्न : चार ज्ञान को तो विभावज्ञान कहा है, यहाँ उन्हें स्वभाव का अंश कैसे कहा?
उत्तर : उन्हें विभाव कहा है, वह तो अपूर्णता की अपेक्षा से कहा है; किसी विरुद्ध जाति की अपेक्षा से (रागादि की तरह) उन्हें विभाव नहीं कहा। वे चारों ज्ञान हैं तो स्वभाव के ही अंश... और स्वभाव की ही जाति, परन्तु वे अभी अपूर्ण हैं और अपूर्णता के आश्रय से पूर्ण ज्ञान नहीं खिलता; इसलिए पूर्ण स्वभाव का आश्रय कराने के लिये अपूर्ण ज्ञानों को विभाव कहा है परन्तु जिस प्रकार रागादि विभाव तो स्वभाव से विरुद्ध हैं-उनकी जाति ही अलग है; इसी प्रकार कहीं इस ज्ञान की जाति अलग नहीं है, ज्ञान तो स्वभाव से अविरुद्ध जाति का ही है। जैसे पूर्ण प्रकाश से ज्वाजल्यमान सूर्य में से बदलों का विलय होने पर जो प्रकाश किरणें झलकती हैं, वे सूर्य के प्रकाश का ही अंश है; इसी प्रकार ज्ञानावरणादि बादल टूटने से सम्यक्मति-श्रुतरूप जो ज्ञान-किरणें प्रगट हुईं, वे केवलज्ञान के प्रकाश से ज्वाजल्यमान जो चैतन्यसूर्य, उसके ही प्रकाश के अंश हैं । सम्यक्मति-श्रुतरूप जो अंश हैं, वे सब चैतन्यसूर्य का ही प्रकाश है। ___ जैसे एक ही पिता के पाँच पुत्रों में कोई बड़ा हो, कोई छोटा हो परन्तु हैं तो एक ही पिता के पुत्र; इसी प्रकार केवलज्ञान से लेकर मतिज्ञान, ये पाँचों सम्यग्ज्ञान, ज्ञानस्वभाव के ही विशेष हैं। उसमें केवलज्ञान, वह बड़ा महान पुत्र है और मतिज्ञानादि भले छोटे हैं, तथापि वे केवलज्ञान की ही जाति है। शास्त्र में गणधर को 'सर्वज्ञपुत्र' कहा है; इसी प्रकार यहाँ कहते हैं कि मति-श्रुतज्ञान, केवलज्ञान के पुत्र हैं, सर्वज्ञता के अंश हैं। जैसे सिद्ध भगवान का पूर्ण अतीन्द्रिय
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