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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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कहलायेगा, जब उसको लक्ष्यगत करे। समयसार की चौथी गाथा में कहते हैं कि
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स॥
काम-भोग और बन्ध की कथा तो सभी जीवों ने पूर्व में अज्ञान अवस्था में अनन्त बार सुनी है, अनन्त बार परिचय में ली है एवं अनन्त बार उसका अनुभव भी किया है, परन्तु पर से विभक्त ज्ञानानन्दस्वरूप एकाकार आत्मा की बात न तो पूर्व में कभी सुनी है, न परिचय में ली है और न उसका अनुभव किया है। देखो! यहाँ मात्र शब्द श्रवण में आना या नहीं आना, उसको ही श्रवण नहीं गिना, किन्तु जिसको जिसकी रुचि-भावना-अनुभव है, उसको उसी का श्रवण है। कानों में चाहे शुद्धात्मा के शब्द पड़ रहे हों, परन्तु भीतर में यदि राग की मिठास-भावना और अनुभव वर्तता है तो वह जीव सचमुच में शुद्धात्मा की कथा नहीं सुन रहा है परन्तु रागकथा का ही श्रवण कर रहा है। शुद्धात्मा का श्रवण तब ही गिना जाता है, जब कि शुद्धात्मा को लक्ष्यगत करे।
प्रश्न : बहुत जीव ऐसे भी हैं कि जिन्होंने अब तक त्रसपर्याय ही कभी नहीं पायी, अर्थात् उनको कभी कान ही नहीं मिले; तब फिर उन जीवों ने भी काम-भोग-बन्धन की कथा अनन्त बार सुनी-ऐसा किस तरह कहा जा सकता है ?
उत्तर : उसमें भी उपर्युक्त न्याय लागू होता है। जिस प्रकार, शुद्धात्मा की जिसको रुचि नहीं है, उसको शुद्धात्मा के शब्द कान में पड़ते हुए भी, उसके शुद्धात्मा का श्रवण नहीं कहते, किन्तु बन्ध
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