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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
कथा का ही श्रवण कहते हैं क्योंकि उस समय भी उसके भावश्रुत में तो बन्धभाव का ही सेवन हो रहा है, उसी प्रकार, निगोदादि के जीवों को बन्धकथा के शब्द भले ही श्रवण में नहीं आते, किन्तु उनके भाव में तो बन्धभाव का सेवन चल ही रहा है, इसलिए वे जीव, बन्धकथा ही सुन रहे हैं-ऐसा कहने में आता है। इस प्रकार जिस उपादान के भाव में जिसका पोषण चल रहा है, उसका ही वह श्रवण कर रहा है-ऐसा कहने में आता है। __ भाई ! तेरे भाव की रुचि न बदले तो अकेले शब्द तुझे क्या करेंगे? यहाँ तो कहते हैं कि अहो, एक बार भी अन्तर्लक्ष्य करके चैतन्य के उल्लास से उसकी बात जिसने सुनी, उसके भवबन्धन टूटने लगे; उसके ही सच्चा श्रवण कहने में आता है। इस अपेक्षा से कहते हैं कि धन्य है उनको जो स्वानुभव की चर्चा करते हैं। ___ अहा! मैं तो चैतन्यस्वरूप हूँ, वीतरागी सन्तों की वाणी मेरे चैतन्यस्वरूप को ही प्रकाशित करती है। इस प्रकार अन्तर में चैतन्य की झनझनाहट जगाकर जिसने उत्साह से-वीर्योल्लास से श्रवण किया, वह अल्प काल में ही स्वभाव के उल्लास के बल से मोक्ष को साधेगा। ऐसे चैतन्य की महिमा आना, वह माङ्गलिक है।
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