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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
तो यही समझना है, इसका ही अनुभव करना है'-ऐसी गहरी उत्कण्ठा जगाकर, उपयोग को इस ओर जरा स्थिर करके जिस जीव ने सुना, वह जीव अवश्य अपनी प्रीति को आगे बढ़कर स्वानुभव करेगा और मुक्ति को पावेगा। इसलिए कहा कि धन्य है उनको, जो अध्यात्मरस के रसिक होकर ऐसी स्वानुभव की चर्चा करते हैं।
प्रश्न : जीव अनन्त बार त्यागी हुआ और भगवान के समवसरण में भी गया, तब क्या उसने शुद्धात्मा की बात नहीं सुनी होगी? ___ उत्तर : देखो! वहाँ प्रसन्नचित्त से' सुनने का कहा है; अतएव वैसे ही सुन लेने की बात नहीं है, किन्तु अन्तर में चैतन्य का उल्लास लाकर जो सुनें, उनकी बात है। क्या सुनें? कि चैतन्यस्वरूप आत्मा की बात सुनें। किस प्रकार सुनें? तो कहते हैं कि उल्लास के साथ सुनें; राग के उल्लास से नहीं किन्तु चैतन्य के उल्लास से सुनें। उसे ही यहाँ श्रवण कहा है। ऐसे श्रवण द्वारा शुद्धात्मा लक्ष्यगत किया, वह अपूर्व है।
जीव को शुद्धनय का पक्ष भी पूर्व में नहीं आया; शुद्धनय का पक्ष कहो या चैतन्य की प्रीति कहो, या शुद्धात्मा का उल्लास कहो, ये सब एक ही अर्थ के सूचक हैं । जैन का द्रव्यलिङ्गी साधु होकर के भी जो मिथ्यादृष्टि बना रहा, उसका यह कारण है कि भीतर से उसको चैतन्य का उल्लास नहीं आया, किन्तु अन्तर में सूक्ष्म विकार का ही उल्लास रहा। प्रगट में तो वह राग से धर्म होने को नहीं कहता, किन्तु भीतर अभिप्राय की गहराई में उसको विकार का रस रह गया है। शुद्ध चैतन्य का सच्चा पक्ष किया, ऐसा तभी
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