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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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शान्त होने पर आत्मस्वभाव में रति होती है और उससे वह जीव स्पष्टरूप से निश्चितरूप से निर्वाण को पाता है।
28- मैं देह नहीं, मन नहीं, वाणी नहीं और उनका कारण भी मैं नहीं-इस प्रकार के जो भाव हैं, वे शाश्वत स्थान को प्राप्त करते हैं। (अर्थात् जो ऐसी भावना भाता है, वह मोक्ष को पाता है)। ____29- देह की तरह मन और वाणी पुद्गलद्रव्यात्मक परवस्तु है-ऐसा उपदेश किया गया है; और पुद्गलद्रव्य, वह भी परमाणु द्रव्यों का पिण्ड है।
30- मैं नहीं तो पुदगलमय तथा नहीं मैंने उन पदगलों को पिण्डरूप किया, इसलिए मैं देह नहीं और उस देह का कर्ता नहीं।
31- इस प्रकार ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय, महाअर्थ, नित्य, निर्मल, और निरालम्ब शुद्ध आत्मा का चिन्तन करना चाहिए।
32- मैं परपदार्थ का नहीं; वे परपदार्थ मेरे नहीं; ज्ञानमय अकेला हूँ-इस प्रकार जो ध्यान में ध्याता है, वह जीव, आत्मा को ध्याता है।
33- इस प्रकार जानकर जो विशुद्ध आत्मा उत्कृष्ट आत्मा को ध्याता है, वह अनुपम अपार अतीन्द्रिय (अनन्त चतुष्टयात्मक) सुख को पाता है।
देखो, यह सिद्धपद के हेतुभूत भावना चलती है। इस भावना से मोक्षसुख प्राप्त होता है।
34- मैं परपदार्थों का नहीं और परपदार्थ मेरे नहीं। इस जगत में मेरा कोई भी नहीं-इस प्रकार जो भावना भाता है, वह सम्पूर्ण कल्याण को पाता है।
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