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[ सम्यग्दर्शन : भाग-6
35- इस ऊर्ध्व-अधो और मध्यलोक में कोई भी परपदार्थ मेरा नहीं है। इस जगत में कोई भी मेरा नहीं है-ऐसी भावना से युक्त जीव, अक्षय सुख को पाता है ।
36- जो जीव, मद-मन-माया से रहित तथा लोभ से रहित और निर्मलस्वभाव से युक्त होता है, वह अक्षय स्थान को पाता है ।
37- देहादिक में जिसे परमाणुमात्र भी मूर्च्छा है, वह जीव भले सर्व आगम का धारी हो, तथापि स्वकीय-समय को वह नहीं जानता।
38- इसलिए मोक्ष के अभिलाषी जीवों को देह में जरा भी राग नहीं करना; देह से भिन्न इन्द्रियातीत आत्मा का ध्यान करना।
39- देह में स्थित, देह से किञ्चित न्यून, देह से रहित शुद्ध, देहाकार और इन्द्रियातीत आत्मा ध्यातव्य है ।
40- जिसके ध्यान में ज्ञान द्वारा निजात्मा यदि भासित नहीं होता तो उसे ध्यान नहीं परन्तु प्रमाद अथवा मोह-मूर्च्छा ही हैऐसा जानना ।
41- मोम से रहित संचा के अन्दर के आकाश जैसे आकारवाले, रत्नत्रयादि गुणों से युक्त, अविनश्वर और जीवघन - देशरूप ऐसे निजात्मा का ध्यान करना चाहिए।
42- जो साधु नित्य उद्योगशील (उपयुक्त) होकर इस आत्मभावना का आचरण करता है, वह अल्प काल में ही सर्व दुःख से मुक्त होता है।
43- कर्म-नोकर्म में — यह मैं हूँ' और मैं - आत्मा, कर्म नोकर्मरूप हूँ - इस प्रकार की बुद्धि से प्राणी घोर संसार में घूमता है ।
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