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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
विषयों से विरक्त होता हुआ, मन को रोककर आत्मस्वभाव में स्थिर होता है, वह मोक्षसुख को प्राप्त करता है। ___ 20-जिसे राग-द्वेष-मोह तथा योगपरिकर्म नहीं, उसे शुभाशुभ को भस्म करनेवाली ध्यानमय अग्नि उत्पन्न होती है।
21- शुद्धस्वभाव से सहित साधु को दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण ध्यान है, वह निर्जरा का कारण होता है; अन्य द्रव्यों से संसक्त ध्यान, निर्जरा का कारण नहीं होता।
22- अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग सर्व सङ्ग से रहित तथा अनन्य मन (अर्थात् एकाग्रचित्त) होकर जो अपने चैतन्यस्वभावी आत्मा को जानता-देखता है, वह जीव, आत्मिक चारित्र का आचरण करनेवाला है।
23- ज्ञान-दर्शन और चारित्र में भावना करनी चाहिए और वह (ज्ञान-दर्शन-चारित्र) तीनों आत्मस्वरूप है, इसलिए हे भव्य! तू आत्मा में भावना कर।
24- मैं निश्चय से सदा एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानात्मक और अरूपी हूँ; अन्य कोई परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है। ___ 25- मोह मेरा किञ्चित् भी नहीं है; मैं एक ज्ञान-दर्शन - उपयोगरूप ही हूँ - ऐसा जानता हूँ। - ऐसी भावना से युक्त जीव, अष्ट दुष्ट कर्मों को नष्ट करता है।
26- मैं परपदार्थों का नहीं और परपदार्थ मेरे नहीं; मैं तो अकेला ज्ञानस्वरूप ही हूँ-इस प्रकार जो ध्यान में चिन्तवन करता है, वह आठ कर्मों से मुक्त होता है।
27- चित्त शान्त होने पर इन्द्रियाँ शान्त होती हैं और इन्द्रियाँ
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