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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
धर्मी को धर्म का ऐसा प्रेम होता है कि अहो! जिनके प्रताप से ऐसा अपूर्व सम्यक्त्वसुख प्राप्त हुआ, उन देव-गुरु के तो हम दास हैं । उनका उपकार कभी नहीं भुलाया जा सकता। धर्म की अत्यन्त प्रीति होने से, उसके हेतुरूप देव-गुरु-शास्त्र, चतुर्विध संघ इत्यादि की सेवा के कार्य में भी वह अपनी शक्ति छुपाये बिना उत्साह से, भक्ति से दासरूप प्रवर्तता है।
निःशङ्कता, वात्सल्य, प्रभावना इत्यादि आठ अङ्ग जैसे सम्यग्दृष्टि को होते हैं, वैसे मिथ्यादृष्टि को नहीं होते। अपरीक्षक को ऊपरी दृष्टि में समानता लगती है, परन्तु परीक्षा करे तो धर्मी के अन्तर की गहराई का पता पड़े और सच्ची परीक्षा स्वयं के स्वानुभव की प्रधानता से होती है। सर्वज्ञ के मार्गानुसार अपने को आत्मानुभव हो, वह छुपा नहीं रहता। उसका तो समस्त जीवन ही अलग प्रकार का हो जाता है। ___ अहा! जिसे सम्यग्दर्शन हुआ, उस जीव को शास्त्र का ज्ञान थोड़ा हो या त्याग अल्प हो, तथापि वह मार्ग का आराधक है। वह प्रतिक्षण कर्म की निर्जरा करता है; सर्व शास्त्र के पठन का मूल सार उसने पढ़ लिया है और जिसे सम्यग्दर्शन नहीं, सम्यग्दर्शन क्या चीज़ है-उसकी महिमा का भी पता नहीं, वह भले चाहे जितने शास्त्र पढ़े या चाहे जैसा त्यागी हो, तथापि प्रतिक्षण वह कर्म बाँधता है; उसे धर्म की आराधना नहीं होती। शास्त्र-पठन या बाह्य त्याग से स्वयं की अधिकता मानकर, आत्मा के अनुभवी-ज्ञानीधर्मात्मा को जो अपने से तुच्छ समझता है, वह सम्यक्त्व की महाविराधना करता है। मुमुक्षु को तो ऐसा होता है कि अरे! धर्मात्मा
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