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सम्यग्दर्शन : भाग-6 ]
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के अतीन्द्रिय अनुभव के समक्ष मेरे इस पठन की या त्याग की क्या कीमत है ? जिसमें सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र इत्यादि गुण हैं - ऐसे गुणवन्त धर्मात्मा ही सदा वन्दनीय हैं। देखो, यह भगवान का मार्ग ! इसका मूल सम्यग्दर्शन है।
अहो! धर्मात्मा का स्वभाव तो अपने आत्मा को साधने का है; उसे जगत की कोई स्पृहा नहीं है, वह तो स्वयं अपने स्वभावरूप धर्म को साधता है परन्तु जो मार्ग से भ्रष्ट हैं और पापाचारी हैं - ऐसे जीव, धर्मात्मा के ऊपर भी दोषारोपण करके स्वयं को उनसे अधिक समझते हैं । अरे! अपना अभिमान पोषण करने के लिये दूसरे धर्मात्माओं पर मिथ्या लांछन लगाते हैं, यह तो महापाप है ऐसे जीवों की सङ्गति करनेयोग्य नहीं है।
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अहा! सम्यग्दर्शन की कीमत क्या ? - उसकी महिमा की जगत को खबर नहीं है । चारित्रदशा तो दूर, परन्तु सच्ची श्रद्धा भी अभी तो दुर्लभ हो गयी है। अभी भले चारित्र - पालन न कर सके, परन्तु उसकी पहिचानसहित श्रद्धा करे तो भी अल्प काल में भव से छुटकारा आयेगा। श्रद्धा ही विपरीत करेगा, तब तो मार्ग से भ्रष्ट होकर संसार में ही भटकेगा । इसलिए हे भाई! इस कलिकाल में चारित्र के लिये तेरी विशेष शक्ति न हो, तो उसकी भावना रखकर भी सच्चे मार्ग की श्रद्धा तो तू अवश्य करना । श्रद्धामात्र से भी तेरा आराधकपना टिका रहेगा और अल्प काल में भव से छुटकारा हो जायेगा, किन्तु यदि सर्वज्ञ के मार्ग का विरोध करेगा तो अनन्त भव में भटकते हुए कहीं तेरा अन्त नहीं आयेगा।
अरे जीव! सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित वीतरागी मार्ग का
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