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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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अहा! सम्यग्दर्शन होने पर सम्पूर्ण आत्मा पलट गया। मात्र दुःख में से छूटकर अतीन्द्रियसुख हुआ; अशान्ति और आकुलता मिटकर परम शान्ति का वेदन हुआ; संसारदशा की ओर का परिणमन छूटकर मोक्षपरिणमन शुरु हुआ; अज्ञान मिटकर अतीन्द्रिय -ज्ञान प्रगट हुआ-ऐसे तो अनन्त गुणों का निर्मल कार्य अनुभूति में एक साथ समाहित होता है।
अहो! जो अपूर्व अनुभव अनन्त काल में नहीं हुआ था, उसके होने पर आत्मा की सम्पूर्ण दशा पलट गयी; मानो सम्पूर्ण आत्मा ही नया हो गया! अनन्त संसार को छेदकर मोक्ष के पंथ में लगा। सिद्धपद का साधक हुआ और उसकी स्वयं को खबर न पड़े-ऐसा कहना तो सम्यक्त्व के मार्ग को लोप करने जैसा है। अरे! यदि स्वयं को पता न पड़े तो उसने साधा क्या? जिससे अल्प काल में मुक्ति होगी-ऐसी प्रतीति हो और जिसके
आत्मा में से कर्म जाऊँ... जाऊँ... हो रहे हों, जिसकी परिणति का परिणमन, मुक्तस्वभाव के प्रति ढल रहा हो, प्रतिक्षण जिसे साधकदशा बढ़ती जाती हो-उसे अपनी दशा की प्रतीति न होऐसा कैसे बने? स्वसंवेदन में कोई अगाध ताकत है-उसकी कल्पना भी अज्ञानी को नहीं हो सकती।
चिदानन्दतत्त्व का भान होने पर, सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा को अपने स्वरूपरूप धर्म की परम प्रीति हुई-उसमें ही तन्मयता हुई और अन्य सब में आत्मबुद्धि छूट गयी, अर्थात् उसे सर्व परद्रव्यों के प्रति सहज वैराग्य हुआ। परमसुखरूप रत्नत्रय के प्रति उत्साह का वेग हुआ, वह संवेग; और दुःखमय परभावों के प्रति वैराग्य हुआ, वह निर्वेद; सम्यग्दृष्टि को ऐसे संवेग-निर्वेद होते हैं।
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