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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
निशान नहीं रहता। ऐसे अनुभववाला जो सम्यग्दर्शन है, वह धर्म का मूल है। अहो ! उसकी अपार महिमा है। ___ शुद्धात्मा की अनुभूति, वह सम्यक्त्व का मुख्य चिह्न है-इसमें ज्ञान की पर्याय को सम्यक्त्व का लक्षण कहा। उस अनुभूति को ही सम्यक्त्व कहना, वह व्यवहार है। व्यवहार क्यों? क्योंकि एक गुण की पर्याय का आरोप दूसरे गुण की पर्याय में किया; इसलिए वह व्यवहार है। सम्यग्दर्शन परिणाम को सीधे पहिचानना, वह निश्चय और अनुभूति के परिणाम से सम्यग्दर्शन परिणाम का अनुमान करना, वह व्यवहार है।
-ऐसी अनुभूति की परीक्षा, सर्वज्ञ के आगम से, प्रत्यक्षपूर्वक के अनुमान से तथा स्वानुभवप्रत्यक्ष से की जा सकती है; इन्द्रियज्ञान द्वारा उसे नहीं पहिचाना जा सकता क्योंकि वह अतीन्द्रिय भाव है। वहाँ स्वयं अपनी अनुभूति का निर्णय करना तो अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की प्रधानता से स्पष्ट हो जाता है और सामनेवाले की परीक्षा उस प्रकार के अनुभव का वर्णन आवे, वैसी वाणी इत्यादि से हो सकता है; धारावाही स्वरूप इसका कैसे चलता है, इससे धर्मी के धर्म का अनुमान हो जाता है। जिसे अपना अनुभव हुआ हो, वही दूसरे के अनुभव का वास्तविक अनुमान कर सकता है। __छद्मस्थ धर्मात्मा को स्वयं का निर्णय तो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से होता है परन्तु सामनेवाले का प्रत्यक्ष नहीं होता। अनुमान से निर्णय हो कि इसे ऐसा अनुभव हुआ है; इस प्रकार प्रत्यक्ष द्वारा स्वयं की
और अनुमान द्वारा दूसरे की परीक्षा करके निर्णय हो सकता है। सम्यग्दर्शन होने का निश्चय न हो सके-ऐसा एकान्त कहना, वह मिथ्यात्व है।
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