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सम्यग्दर्शन : भाग -6 ]
कषायरूप न हो और अपने अकषायस्वभाव में स्थित रहे - ऐसे उत्तम क्षमारूप धर्म में शुद्ध चेतना आ गयी; सम्यग्दर्शन-ज्ञान - चारित्र भी आ गये और संक्लेशपरिणाम के अभावरूप जीवरक्षा भी आ गयी।
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( 3 ) सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप धर्म - इस निर्मल -परिणति में भी शुद्ध चेतना इत्यादि तीनों प्रकार समाहित हो जाते हैं क्योंकि सम्यग्दर्शनादि तीनों रागरहित हैं ।
( 4 ) जीवरक्षारूप धर्म-क्रोधादि संक्लेशपरिणाम द्वारा अपने या पर के आत्मा को नुकसान - दुःख - क्लेश न हो और कषायरहित निर्मलपरिणाम रहे, इसका नाम जीवरक्षा है । इसमें बाकी के तीनों प्रकार आ जाते हैं । परमार्थ जीवरक्षा में अपने जीव की चेतना को मोहभावों से घात नहीं करना, वह भी आ जाता है क्योंकि मोहभाव, वह जीव की हिंसा है ।
इस प्रकार धर्म की शुरुआत के अनेक प्रकार होने पर भी, निश्चय से साधा जाये तो धर्म का एक ही प्रकार है और वह धर्म, शुद्ध आत्मा के अनुभवरूप सम्यग्दर्शनपूर्वक ही होता है ।
व्यवहारनय भेद से तथा अन्य के संयोग से कथन करता है, इसलिए उसके अनेक भेद हैं : इसलिए व्यवहार से धर्म का वर्णन भी अनेक प्रकार से किया है। किसी समय प्रयोजनवश एकदेश को सर्वदेश कहनेरूप व्यवहार है तथा किसी समय अन्य का संयोग देखकर एक वस्तु में अन्य वस्तु का आरोपण करनेरूप व्यवहार है ।
जैसे कि, जीव के निर्विकार स्वभावरूप जो शुद्ध चेतनापरिणाम
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