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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
विचरते थे। अभी तो मुनि के दर्शन भी दुर्लभ हो गये हैं। मुनिदशा कैसी अद्भुत है, उसे पहिचाननेवाले भी विरले हैं।
सर्वज्ञ भगवान ने गणधरादि शिष्यजनों को मोक्ष के कारणरूप जिस धर्म का उपदेश दिया है, उस धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। धर्म की व्याख्या चार प्रकार से है
(1) वस्तुस्वभावरूप धर्म, (2) उत्तम क्षमादि दशविध धर्म, (3) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म और (4) जीवरक्षारूप धर्म (अहिंसारूप धर्म)।
-ऐसे अनेक प्रकार से धर्म की प्ररूपणा है, उन सबमें सम्यग्दर्शन की प्रधानता है, सम्यग्दर्शनपूर्वक ही वह धर्म होता है। सम्यग्दर्शन बिना इन चार में से एक भी प्रकार नहीं होता। जहाँ चार में से एक प्रकार कहा हो, वहाँ बाकी के तीन भी उसमें ही गर्भित होते हैं। इसलिए निश्चय से साधने पर उन चारों में एक ही प्रकार है। उसका विवेचन :__ (1) वस्तुस्वभावरूप धर्म-जीव वस्तु ज्ञान-दर्शनमय चेतनास्वरूप है, वह चेतना शुद्धतारूप से परिणमे, वह उसका स्वभाव है। उस शुद्धचेतनारूप धर्म में क्रोधादि के अभावरूप उत्तम क्षमादि धर्म आ जाते हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म भी उसमें ही आ जाता है। संक्लेशपरिणाम के अभाव से वीतरागभावरूप जीवरक्षा भी उसमें आ गयी। इस प्रकार निश्चय से भिन्न-भिन्न चार प्रकार के धर्म नहीं; एक ही प्रकार है। मोह -क्षोभरहित शुद्ध चेतनापरिणाम, वही जिनेश्वरदेव से कथित धर्म है।
(२) उत्तमक्षमादिरूप दस धर्म-आत्मा, क्रोधादि
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