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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [11 कहने पर जिनमार्ग; उस जिनमार्ग में सर्वज्ञदेव कैसे होते हैं? मुनिदशा कैसी होती है ? सूत्र कैसे होते हैं ? यह सब आचार्यदेव ने समझाया है। जिनमार्ग में रत्नत्रयरूप भावशुद्धिसहित दिगम्बर जिनमुद्रा होती है - ऐसी मुनिदशा है। उससे विरुद्ध दूसरी किसी मुद्रा को जिनमार्ग में मुनिदशारूप से सम्यग्दर्शन स्वीकार नहीं करता। रत्नत्रयमार्गरूप से परिणमित आत्मा वह स्वयं 'मार्ग' है, वह स्वयं जिनदर्शन है। * मोह, आत्मा का शत्रु है; उसे सम्यक्त्वादि द्वारा जो जीतता है, वह जिन है। * अव्रती सम्यग्दृष्टि ने भी सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्यात्वादि को जीता है, इसलिए वे भी जिन हैं। * ऐसे सम्यग्दृष्टि जिनों में श्रेष्ठ श्री गणधरदेव इत्यादि मुनि हैं; इसलिए वे 'जिनवर' हैं और * ऐसे जिनवर-मुनिवरों में भी प्रधान श्री तीर्थङ्करदेव हैं, वे 'जिनवरवृषभ' है। इस प्रकार जिनवरवृषभ विशेषण समस्त तीर्थङ्करों को लागू पड़ता है। ___-ऐसे जिनवरवृषभ तीर्थङ्कर अनन्त हुए... भरतक्षेत्र की इस चौबीसी में पहले ऋषभ तीर्थङ्कर हुए और अन्तिम वर्धमान तीर्थङ्कर हुए... इस प्रकार पहले-अन्तिम और बीच के समस्त तीर्थङ्करों को नमस्कार करके, उनके द्वारा कथित जो मार्ग, उसे आचार्यदेव ने प्रसिद्ध किया है, उसका ही नाम दर्शन है। अहा! अच्छे काल में तो कितने ही मुनि इस भरतक्षेत्र में Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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