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________________ www.vitragvani.com 10] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 सम्यग्दर्शन की आराधना का उपदेश श्री आचार्यदेव ने दर्शनप्राभूत में सम्यग्दर्शन की परम महिमा समझाकर उसकी आराधना का उपदेश दिया है और ऐसी आराधना करनेवाले को आराधक जीवों के प्रति कितना विनय-बहुमान होता है, यह भी बहुत सरस समझाया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव, शान्तरस में झूलते सन्त, जैनशासन के स्तम्भ, जिन्होंने इस पंचम काल में विदेहक्षेत्र के साक्षात् तीर्थङ्कर सीमन्धर परमात्मा का साक्षात्कार हुआ, उन्होंने इस अष्टप्राभृत शास्त्र की रचना की है। इसमें पहले दर्शनप्राभृत में सम्यग्दर्शन की प्रधानता का सरस वर्णन किया है। सम्यग्दर्शन के बिना जीव अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। अरे! बाह्य भावों से संसार में परिभ्रमण करते-करते तीर्थंकर का आत्मा भी थका... इसलिए आया अन्तर में! अहा! तीर्थंकर जिस भवभ्रमण से डरकर अन्तर में आये और सम्यग्दर्शन करके भवभ्रमण से छूटे, उस संसार दुःख से, हे जीव! यदि तुझे भय हो और तू उससे छूटना चाहता हो तो आत्मा को पहचान कर सम्यग्दर्शन कर। दूसरे चाहे जितने उपाय जीव करे परन्तु सम्यग्दर्शन बिना भवभ्रमण नहीं मिटता। दर्शनप्राभृत की पहली गाथा में मङ्गलाचरण करके आचार्यदेव ने श्री जिनवरवृषभ को तथा वर्धमान तीर्थङ्कर को नमस्कार किया है... और दर्शन का मार्ग कहने की प्रतिज्ञा की है। दर्शन कहने से (आशय है) सम्यग्दर्शन; वह धर्म का मूल है अथवा दर्शन Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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