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सम्यग्दर्शन : भाग-6 ]
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अहो! मेरा अतीन्द्रिय स्वभाव ही मुझे अनुकूल और इष्ट
है। उसके अवलम्बन से ही मुझे सुख है ।
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• मेरे ज्ञान - सुख के लिये मुझे इन्द्रियों इत्यादि दूसरे का अवलम्बन लेना पड़े तो वह पराधीन होने से मुझे प्रतिकूल है, वह इष्ट नहीं परन्तु अनिष्ट है, दुःखरूप है।
अहो, प्रिय वीरनाथ ! वीतराग उपदेश द्वारा ऐसा सुन्दर हमारा इष्ट स्वभाव दर्शाकर आपने जो अचिन्त्य उपकार किया है, उसे स्मरण करते हुए भी हमारा हृदय आपके प्रति अर्पित हो जाता है ।
अहो, सर्वज्ञ अरिहन्तों ने प्रगट किया हुआ आत्मा का रागरहित स्वाधीन अतीन्द्रिय महान सुख, वह किसे नहीं रुचेगा ? ऐसा सुख कौन मुमुक्षु आनन्द से सम्मत नहीं करेगा ? सर्वज्ञ का ऐसा इन्द्रियातीत सुख, वह आत्मा का स्वभाव ही है - ऐसा जानते हुए मुमुक्षु भव्य आत्मा प्रसन्नता से उसका स्वीकार करता है, इसलिए इन्द्रिय विषयों में से (और उसके कारणरूप पुण्य तथा शुभराग में से ) उसे सुखबुद्धि छूट जाती है - ऐसे सुख को श्रद्धा में लेने से स्वभाव के आनन्द के वेदनसहित सम्यग्दर्शन होता है ।
अहो, वीरनाथ परम सर्वज्ञदेव ! ऐसे अतीन्द्रिय ज्ञान - सुखरूप से आप परिणमित हुए हो और आपके ऐसे परम इष्ट आत्मा को पहिचानकर, उसका स्वीकार करने से हमारा पूर्ण ज्ञानानन्द से भरपूर आत्मस्वभाव हमें प्रतीति में आ जाता है, मोक्षसुख का नमूना स्वाद में आ जाता है... कि जो हमें परम इष्ट है ।
इस प्रकार इष्ट प्राप्ति के महा आनन्दपूर्वक हम आपको नमस्कार करके आपके मङ्गल मार्ग में चल रहे हैं।
जय महावीर !
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