SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन : भाग-6 ] ― www.vitragvani.com [9 अहो! मेरा अतीन्द्रिय स्वभाव ही मुझे अनुकूल और इष्ट है। उसके अवलम्बन से ही मुझे सुख है । — • मेरे ज्ञान - सुख के लिये मुझे इन्द्रियों इत्यादि दूसरे का अवलम्बन लेना पड़े तो वह पराधीन होने से मुझे प्रतिकूल है, वह इष्ट नहीं परन्तु अनिष्ट है, दुःखरूप है। अहो, प्रिय वीरनाथ ! वीतराग उपदेश द्वारा ऐसा सुन्दर हमारा इष्ट स्वभाव दर्शाकर आपने जो अचिन्त्य उपकार किया है, उसे स्मरण करते हुए भी हमारा हृदय आपके प्रति अर्पित हो जाता है । अहो, सर्वज्ञ अरिहन्तों ने प्रगट किया हुआ आत्मा का रागरहित स्वाधीन अतीन्द्रिय महान सुख, वह किसे नहीं रुचेगा ? ऐसा सुख कौन मुमुक्षु आनन्द से सम्मत नहीं करेगा ? सर्वज्ञ का ऐसा इन्द्रियातीत सुख, वह आत्मा का स्वभाव ही है - ऐसा जानते हुए मुमुक्षु भव्य आत्मा प्रसन्नता से उसका स्वीकार करता है, इसलिए इन्द्रिय विषयों में से (और उसके कारणरूप पुण्य तथा शुभराग में से ) उसे सुखबुद्धि छूट जाती है - ऐसे सुख को श्रद्धा में लेने से स्वभाव के आनन्द के वेदनसहित सम्यग्दर्शन होता है । अहो, वीरनाथ परम सर्वज्ञदेव ! ऐसे अतीन्द्रिय ज्ञान - सुखरूप से आप परिणमित हुए हो और आपके ऐसे परम इष्ट आत्मा को पहिचानकर, उसका स्वीकार करने से हमारा पूर्ण ज्ञानानन्द से भरपूर आत्मस्वभाव हमें प्रतीति में आ जाता है, मोक्षसुख का नमूना स्वाद में आ जाता है... कि जो हमें परम इष्ट है । इस प्रकार इष्ट प्राप्ति के महा आनन्दपूर्वक हम आपको नमस्कार करके आपके मङ्गल मार्ग में चल रहे हैं। जय महावीर ! Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy