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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
उसकी पर्याय में ज्ञान और आनन्द का पुष्प खिल जाता है, उसे कोई अपूर्व... पूर्व में कभी नहीं अनुभव की हुई चैतन्य शान्ति वेदन में आती है-मुझमें से ही यह शान्ति आयी है, मैं ऐसी शान्तिरूप हुआ, मेरा आत्मा ही ऐसी पूर्ण शान्तिरूप है; इस प्रकार आनन्द का अगाध समुद्र उसे प्रतीति में-ज्ञान में-अनुभूति में आ जाता है; अपना परम इष्ट सुख उसे प्राप्त होता है और अनिष्ट ऐसा दुःख दूर होता है।
-बस, यह है महावीर प्रभु का इष्ट उपदेश ! महावीर भगवान द्वारा कथित वस्तुस्वरूप जो समझता है, उसे ऐसे इष्ट की प्राप्ति होती ही है।
जिस प्रकार सूर्य को आकाश में रहने के लिये किसी स्तम्भ के सहारे की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसे उष्णता के लिये अथवा प्रकाश के लिये कोई कोयला या तेल इत्यादि ईंधन की आवश्यकता नहीं पड़ती; अपने वैसे स्वभाव से ही वह आकाश में निरालम्बी उष्णता और प्रकाशवान है । उसी प्रकार सुख और ज्ञान जिसका स्वभाव है, ऐसी दिव्यशक्तिवाले आत्मा को अतीन्द्रिय ज्ञान और आनन्दरूप परिणमित होने के लिये किसी राग, पुण्य या इन्द्रियविषयों की पराधीनता नहीं है; उन सबकी अपेक्षा बिना स्वभाव से ही स्वयं स्वयमेव दिव्यज्ञान-सुख की शक्तिवाला देव है; सुख और ज्ञान, आत्मा का स्वभाव ही है; उस स्वभाव की प्राप्ति वह इष्ट है। धर्मी को अपना ऐसा ज्ञान आनन्दमय सहजस्वभाव ही इष्ट-प्रिय में प्रिय है। जिसे चैतन्यपद इष्ट लगा, उसे जगत में दूसरा कुछ इष्ट नहीं लगता।
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