SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com 14] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 है, वह निश्चयधर्म है और उसके साथ वर्तते मन्दकषायरूप शुभपरिणाम या देहादि की बाह्य क्रिया में भी धर्म का आरोप करना, वह व्यवहार है। वस्तुतः तो वह धर्म नहीं, परन्तु वहाँ निश्चयधर्म प्रगट हुआ है, उसके उपचार से उसके साथ के शुभराग को या देह की क्रिया को भी धर्म कहा जाता है-ऐसा व्यवहार है। इसी प्रकार रत्नत्रय इत्यादि में भी निश्चय-व्यवहार समझना और उसमें पृथक्करण करके जो निश्चयधर्म है, वही सत्यधर्म है-ऐसा जानना और इसके अतिरिक्त दूसरे को धर्म कहना, वह उपचारमात्र है; सत्य नहीं-ऐसा जानकर उसका आश्रय छोड़ना। पहले जिसे धर्म के सच्चे स्वरूप की खबर भी न हो, वह उसका आचरण तो कहाँ से करेगा? इसलिए श्रद्धा, वह धर्म का मूल है। जैसे मूल के बिना वृक्ष को डालियाँ, पत्तियाँ कहाँ से होंगे? उसी प्रकार दर्शन अर्थात् श्रद्धा-उसके बिना जीव को सम्यग्ज्ञान -चारित्र या क्षमा इत्यादि कोई धर्म सच्चा नहीं होता। इस प्रकार 'दर्शन' जिसका मूल है-ऐसा धर्म, भगवान जिनवर ने गणधर आदि शिष्यों को उपदेशा है-ऐसा धर्म सुनकर सत्पुरुष अपने हित के लिये आदरपूर्वक उसकी उपासना करो और उससे विरुद्ध मार्ग को छोड़ो। -धर्म का मूल सम्यग्दर्शन क्या है ?सम्यग्दर्शन, वह जीव का अन्तरङ्गभाव है। उपाधिरहित शुद्धजीव को साक्षात् अनुभव में लेकर उसमें आत्मबुद्धिरूप प्रतीति, वह सम्यग्दर्शन है, वह निश्चय से एक ही प्रकार का है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy