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सम्यग्दर्शन : भाग-6]
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भव्य! तू ज्ञानचेतनारूप होकर सादि-अनन्त काल तेरे चैतन्यसुख को भोग!
तेरे सुखस्वभाव को पहचान कर तू सुखी हो। ऐसा सुखी हो कि पुनः अनन्त काल में कभी दु:ख नहीं आवे।
आत्मा का अतीन्द्रियज्ञान, एकान्त सुख है। ज्ञानस्वभाव जहाँ है, वहाँ सुखस्वभाव भी है ही; इसलिए गुणभेद न करो तो जो ज्ञान है, वही सुख है । जो अतीन्द्रियज्ञानरूप से परिणमित आत्मा, वह स्वयं ही अतीन्द्रियसुखरूप है। आत्मा में ज्ञानपरिणमन के साथ सुखपरिणमन भी शामिल ही है। सुखरहित ज्ञान या ज्ञानरहित सुख नहीं होता है।
कोई कहे कि हमें आत्मा का ज्ञान नहीं परन्तु हम सुखी हैं, तो अतीन्द्रियज्ञान के बिना उसका सुख, वह सच्चा सुख नहीं है; उसने मात्र बाह्य विषयों में सुख की कल्पना की है और वह कल्पना मिथ्या है। विषयों की आकुलता में सुख कैसा? सुख तो
अतीन्द्रियज्ञान में है। ज्ञान के बिना सुख नहीं होता। ___ कोई कहे कि हमें ज्ञान हुआ है परन्तु सुख नहीं है-तो उसने भी मात्र इन्द्रियज्ञान को ही ज्ञान माना है, वह सच्चा ज्ञान नहीं है। ज्ञान तो आकुलतारहित सुखस्वरूप होता है। सुख के वेदनरहित का ज्ञान कैसा? वह ज्ञान नहीं परन्तु अज्ञान है। ___ इस प्रकार ज्ञान और सुख, ये दोनों आत्मा का स्वभाव है। प्रभो! तेरा ज्ञान और तेरा सुख दोनों अचिन्त्य, इन्द्रियातीत, अद्भुत है; उसे पहचाननेवाला ज्ञान, इन्द्रियों से पार होकर अतीन्द्रियमहान ज्ञानसामान्य में झुककर तन्मय होता है और तब अपने में ही उसे महान सुख का अनुभव होता है। अहो! ऐसे अतीन्द्रिय ज्ञान
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