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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
अप्रतिहत मुमुक्षु दशा ॐ वह प्रगट करके महावीर प्रभु के मार्ग में आ जाओ 2S [सम्यक्त्व जीवन-लेखमाला : लेखांक-16] SER ___ अहो, मुमुक्षु की विचारधारा ऐसे अपूर्व भाव से चल रही है कि जिसमें राग का रस टूटता जाता है। पूर्व में अनन्त बार ग्यारह अङ्ग तक पढ़कर निष्फल गया; उसकी अपेक्षा उसका ज्ञान कोई नया ही कार्य करता है; इस ज्ञान का संस्कार निष्फल जानेवाला नहीं है; यह ज्ञान रागादि से भिन्न होकर चैतन्य का स्वसंवेदन करेगा ही और वह भी अल्प समय में ही। वाह ! ऐसी मुमुक्षुदशा भी धन्य है ! वह ऐसी अफर है कि आगे बढ़ती हुई सम्यक्त्व को अवश्य प्राप्त करेगी ही। साधर्मीजनों! वीरनिर्वाण के ढाई हजार वर्षीय इस महान उत्सव के मङ्गल अवसर में ऐसी दशा शीघ्र ही प्रगट करो और महावीर प्रभु के मार्ग में आ जाओ। –ब्र. ह. जैन
सम्यक्त्वसन्मुख जीव की भावना ऐसी उत्कृष्ट होती है कि मुझे ज्ञानी-गुरुओं के पास जाना है; मुझे सन्तों के धाम में रहना है कि जहाँ मुझे मेरे आत्मा का ज्ञान हो और इस भवदुःख से मैं छूटैं। इस प्रकार अपने हित के लिये आत्मस्वरूप सम्बन्धी नये-नये ज्ञान की उत्कण्ठा उसे बनी रहती है; और गुरु का उपदेश ग्रहण करके उसके अन्तर्विचार से सम्यक्त्व का द्वारा खुल जाता है। उसे ख्याल आ जाता है कि अब आत्म-अनुभूति के लिये अन्तर में मुझे क्या करने का है ! ऐसा लक्षगत होने के बाद साक्षात् अनुभूति के लिये उसका चित्त ऐसा लालायित हो जाता है-जैसा वर्षा के लिये किसान, तथा माता के लिये बालक। इस प्रकार का आत्म
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