SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [185 रटना के द्वारा उसका विचार-विवेक बढ़ता जाता है, आत्मरस बढ़ता जाता है, और उसका उपयोग आत्मस्वरूप की अधिकअधिक गहराई में उतरने लगता है। बस, अभी इसी क्षण आत्मा का सम्यग्दर्शन प्रगट कर लूँ, यही मेरा कार्य है-ऐसी उग्र उसकी विचारधारा हो जाती है। उसे भेदज्ञान के विचार के बल से अन्तर में शान्ति होने लगती है-यह शान्ति राग में से नहीं आती, किन्तु अन्तर की किसी गहराई में से आयी है। इस प्रकार अपने वेदन के बल से उसका आन्तरिक मार्ग खुलता जाता है; जैसे-जैसे वह मार्ग अधिक-अधिक स्पष्ट होता जाता है, वैसे-वैसे उसका आत्मिक उत्साह भी बढ़ता जाता है; अब उसे मार्ग में सन्देह नहीं पड़ता, तथा पन्थ भी अपरिचित नहीं लगता। -और इसके पश्चात् एक ऐसा क्षण आता है कि आत्मा कषायों से छूटकर चैतन्य के परम गम्भीर शान्तरस में मग्न हो जाता है... अपना अत्यन्त सुन्दर महान अस्तित्व पूरा का पूरा स्वसंवेदनपूर्वक प्रतीति में आ जाता है। बस, यही है सम्यग्दर्शन! यही है साध्य की सिद्धि ! यही है मङ्गल चैतन्यप्रभात ! और यही है भगवान महावीर का मार्ग! अहा, इस अपूर्व दशा की शान्ति की क्या बात ! प्रिय साधर्मी भाई-बहिनों! सोचिये तो सही, कि जैनशासन के सभी सन्तों ने दिल खोलकर जिसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है, वह अनुभूति कैसी सुन्दर होगी? उस वस्तु को लक्ष्य में लेकर उसका निर्णय Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy