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________________ www.vitragvani.com 174] [सम्यग्दर्शन : भाग-6 को भी दु:ख न हो, और मुझे कहीं भी राग-द्वेष न हो; अरे! जिनसे मेरी अन्यन्त भिन्नता, जिनसे मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं-ऐसे ये सभी परद्रव्य-उनमें प्रीति-अप्रीति करने से क्या? व्यर्थ राग-द्वेष करके मैं दु:खी क्यों होऊँ ? इस प्रकार भेदज्ञान के बल से उसे वीतरागता की भावना होती है; देव-शास्त्र-गुरु-साधर्मीजन, उन सबके प्रति उसे प्रमोद भाव आता है। अहो! भयङ्कर भवदुःख से छुड़ाकर जिन्होंने जीवन का सर्वस्व दिया, अपूर्व सम्यक्त्व दियाउनके उपकार का क्या कहना? इस प्रकार देव-गुरु का परम उपकार मानता हुआ और सर्व जीवों का हित चाहता हुआ वह मुमुक्षु, पूर्ण शुद्धात्म-प्राप्ति के ध्येय की ओर ही आगे बढ़ता जाता है, स्वध्येय को कभी भी नहीं चुकता। __ अहो! सम्यक्त्व-जीवन की अपार महिमा का क्या कहना? शास्त्रों ने स्थान-स्थान पर उसके गीत गाये हैं परन्तु शब्दों से उस स्वसंवेद्य वस्तु का कितना वर्णन हो सके? जिसने किसी धन्य क्षण में चैतन्यरत्न को परख लिया और सम्यग्दर्शन प्रगट किया, उस ज्ञानी-धर्मात्मा की दशा आश्चर्यकारी है!... जगत में सर्वश्रेष्ठ ऐसे सम्यक्त्व-रत्न को प्राप्त करनेवाले उस ज्ञानी को आत्मप्राप्ति का अपूर्व आनन्द होने पर भी, इतने से ही वह पूर्ण सन्तुष्ट नहीं हो जाता, परन्तु पूर्णता की भावनापूर्वक वह उसके लिये प्रयत्नशील रहता है। अहो! मेरे त्रिकाली स्वभाव में केवलज्ञान और सिद्धपद के पूर्णानन्द से भरी अनन्ती पर्यायरूप होने की ताकत है-मैंने उसको पहचान लिया, तब फिर मैं उस अल्प पर्याय में सन्तोष क्यों मान लूँ ? कहाँ सर्वज्ञ भगवन्त! कहाँ महा ऋद्धिधारी मुनिभगवन्त ! मैं तो उनका दासानुदास हूँ, और मुझे ऐसी धन्यदशा कब हो!! Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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