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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6] [173 आत्मा के लिये उसने स्वार्पण किया है-स्वार्पण करके वह आत्मा में लग जाता है और मोह को तोड़कर सम्यग्दर्शन पाकर विजेता 'जिन' बन जाता है। भले ही छोटा, किन्तु वह 'जिन' है। -ऐसी सम्यक्त्वरूप जिनदशा की आँखनावाले मुमुक्षु को सबसे अलिप्त रहने की वृत्ति होती है। जहाँ चैतन्यभावना की पुष्टि हो, ऐसा सङ्ग ही उसे हितकारी मालूम होता है। 'मुझे अपने शुद्धात्मा का दर्शन करना है' बस, वही एक लगन रहती है, गुरु से भी बारबार यही प्रश्न पूछता है और यही बात सुनता है कि मुझको आत्मप्राप्ति कैसे हो? 'माँ' से अलग हए बालक को जैसे 'मेरी माँ' 'मेरी माँ' वह एक ही रटन रहता है, उसके सिवाय अन्यत्र कहीं भी उसे चैन नहीं पड़ता; उसकी दृष्टि अपनी माँ की ही शोध में लगी रहती है और वह मिलते ही तुरन्त दौड़कर अत्यन्त प्यार से उसके गले लग जाता है। इसी प्रकार आत्मा की स्वानुभूतिरूपी माता, उससे बिछुड़े हुए मुमुक्षु को 'मेरा आत्मा' 'मेरा आत्मा'- ऐसी एक ही लगन रहती है; उसकी ही खोज में वह अपनी पूरी शक्ति लगाता है; इसके सिवा और किसी में भी उसे चैन नहीं होता। स्वाध्याय-विचार-श्रवण-पूजा-गुरुसेवा आदि सभी कार्य के करते हुए भी उसकी नजर अपने स्वरूप को ही खोजती रहती है और जहाँ वह लक्ष्यगत हुआ कि शीघ्र तत्क्षण ही उपयोग को उसमें लगाकर परम प्रेम से उसे भेंटकर तद्रूप बन जाता है। बस! ऐसी अनुभूति, यही सम्यग्दर्शन है और वही मुमुक्षु का सच्चा जीवन है। अन्तर में ऐसे अलौकिक आत्मजीवन के साथ उसका लौकिक जीवन भी बहुत उच्च कोटि का होता है। जैसी शान्ति मुझे प्राप्त हुई, वैसी शान्ति सभी जीवों को प्राप्त हो, मेरे निमित्त से जगत में किसी Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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