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[सम्यग्दर्शन : भाग-6
दूंगा। अब सदा के लिये इस भवदुःख से छूटकर आत्मा में ही विश्राम करना है, और उसके शान्त निर्विकल्परस का ही पान करना है। 'वाह! देखो तो सही, सच्चे मुमुक्षु की आत्मजिज्ञासा'
उस जिज्ञासु जीव को होवे सद्गुरु बोध;
पाये वह सम्यक्त्व को, वर्ते अन्तरशोध॥ वह सम्यक्त्वसन्मुख जीव, चैतन्य में अन्तर्मुख होकर अन्तर्शोधन करता है कि मेरा चैतन्य ज्ञायकतत्त्व सबसे असङ्ग केवल आनन्दमूर्ति है और रागादि क्षणिकभाव तो नये-नये आते हैं, फिर चले जाते हैं। मेरा चैतन्यभाव उनसे भिन्न है, वह विभावरूप कभी नहीं होता। विकल्प का कोलाहल, शान्त चैतन्य में प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार बर्फ में जिधर भी देखो शीतलता ही भरी है; वैसे मेरे चैतन्य में भी जहाँ देखू, वहाँ सुख-आनन्द-शान्ति की शीतलता का ही वेदन होता है-इस प्रकार उस चैतन्य का स्व -संवेदन करके सम्यग्दृष्टि होता है।
चमकीला हीरा जहाँ भी हो, उसकी कीमत तो एक समान ही रहती है। इस प्रकार चैतन्य-हीरा किसी भी शरीर के बीच में. संयोग के बीच में या राग के बीच में हो तो भी उसके चैतन्यभाव की कीमत एक समान ही है। चैतन्यभाव तो उन सबसे अलग ही अलग चैतन्यभावरूप ही रहता है, वह अन्यथा नहीं होता; परभाव से लिप्त नहीं होता।
सम्यग्दर्शन के पहले मुमुक्षु की आत्मिक विचारधारा अति उग्र होती है जिस प्रकार राजपूत केसरिया करें, उसी प्रकार
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