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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-6 ] [ 171 मग्न था, वे अब बिल्कुल रसहीन मालूम पड़ते हैं; और अनादि से जो आत्मस्वरूप बिल्कुल अपरिचित था, वह अब परिचित होने लगता है; उसके परिचय में मन लगता है । जगत के कोलाहल से थकित उसका चित्त, आत्मशान्ति को निकट में ही देखकर उसके प्रति एकदम उल्लसित होता है । जैसे, माता के लिये तड़फता बालक, माता को देखकर आनन्द से उल्लसित होता है, और शीघ्र दौड़कर उसका आलिङ्गन करता है; वैसे आत्मा के लिये तड़फता मुमुक्षु का चित्त, आत्मा को देखकर आनन्द से उल्लसित होता है और तुरन्त अन्तर्मुख होकर उससे भेंटता है । जिस प्रकार तृषातुर हिरन, पानी के तालाब की ओर दौड़ता है, उसी प्रकार आत्मपिपासु जीव की परिणति, शान्ति के धाम की ओर वेगपूर्वक दौड़ती है। वह मुमुक्षु, अन्य ज्ञानियों की अनुभूति की बात परम प्रेम से सुनता है । अहो ! ऐसी अद्भुत अनुभूति ! इस प्रकार उसका चित्त उसी में तत्पर होता है । बस, अब अनुभव को देरी नहीं, काम चालू हो गया है, बहुत ही अल्प समय में कार्यसिद्धि होगी- सम्यग्दर्शन होगा; इस प्रकार परम उत्साहपूर्वक वह अपने कार्य को साधता है । मेरा चैतन्यभगवान आत्मा, देह से भिन्न है; राग से पार है - इस प्रकार जब आत्मा की प्रभुता ज्ञानी के श्रीमुख से सुने और अन्तर में विचार करे कि तुरन्त ही उसको अपनी प्रभुता अपने में दिखने लगती है कि अहो! मुझमें ऐसी प्रभुता ! तो अब उसी में क्यों न रहूँ? अब एक क्षण भी दुःख में क्यों रहूँ ? इस प्रकार उसके अन्तर में एकदम चोट लग जाती है । मेरा ऐसा निजस्वरूप होने पर भी मैंने अभी तक उसको न पहचाना, परन्तु अब तो मेरे आत्मकल्याण का उत्तम अवसर आ गया है - यह अवसर अब मैं व्यथ नहीं जाने Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007773
Book TitleSamyag Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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