________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-6]
[175
उसकी भावना करता हूँ। इस प्रकार धर्मीजीव को सम्यक्त्व के पश्चात् धर्मवृद्धि की उत्तम विचाराधारा होती है। __ जीव चारों गति में सम्यग्दर्शन पा सकता है। चार में से किसी भी गति में सम्यग्दृष्टि हो, इन सभी सम्यग्दृष्टि की आत्मप्रतीति समान ही है... सम्यक्त्व का आनन्द भी समान होता है, तत्त्व -निर्णय भी समान है... संयोग चाहे जो भी हो, सभी सम्यग्दृष्टि जानते हैं कि 'शुद्धोऽहं, चिद्रूपोऽहं, निर्विकल्पोऽहं'-मैं शुद्ध चैतन्यरूप हूँ, बाहरी किसी भी वस्तु का स्पर्श मुझे नहीं है। पहले अज्ञानदशा में मेरी पर्याय रागादि को स्पर्श करती थी, अब वह राग से भिन्न ज्ञानरूप होकर, ज्ञानस्वभावी आत्मा का स्पर्श करके परभावों से अलिप्त बन गई... जिस तरह पानी के बीच भी कमलपत्र पानी से अलिप्त रहता है; उसी प्रकार रागादि के बीच तथा बाह्य संयोगों के बीच भी सम्यग्दृष्टि का चैतन्यभाव उन सबसे अलिप्त है; इसलिए उसे ही सच्चा वैराग्य है ! भले ही उत्कृष्ट शुभराग हो, फिर भी उसमें उसकी चेतना तन्मय नहीं होती, अलग ही रहती है। चैतन्य की शान्ति के पास सब रागादि कषायभावों का वेदन उसे अग्नि समान दिखता है; इसलिए उनसे भिन्न ऐसे चैतन्य के समरस को ही निजरसस्वरूप वेदन करता है। [राग आग दहै सदा... तातें शमामृत सेइये।] ___ अहा! ऐसे साधक जीवों की शान्ति को देखकर अन्य जीवों को भी आत्मसाधना की प्रेरणा प्राप्त होती है ! महाभाग्य से हमें वर्तमान में भी ऐसे शान्तरसमय सम्यग्दृष्टि जीव सोनगढ़ में साक्षात् दृष्टिगोचर होते हैं; उन्हें हमारी वन्दना हो!.
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.